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________________ 114. संबुझ्मादुवाहा संखा सिप्पी अपादगा य किमी। जाणंति रसं फासं जे ते बेइंदिया जीवा।। संबुक्मादेवाह संखा सिप्पी घोंघा, कीट-विशेष शंख सीप पाँव-रहित अपादगा य . और किमी कीड़े [(संबुक्क)-(मादुवाह) 1/2] (संख) 1/2 (सिप्पि) 1/2 (अपादग) 1/2 वि 'ग' स्वार्थिक अव्यय (किमी) 1/2 (जाण) व 3/2 सक (रस) 2/1 (फास) 2/1 (ज) 1/2 सवि (त) 1/2 सवि [(बे) वि-(इंदिय) 1/2] (जीव) 1/2 जाणंति जानते हैं फासं स्पर्श जे बेइंदिया जीवा दो इन्द्रिय जीव अन्वय- संबुङमादुवाहा संखा सिप्पी अपादगा य किमी जे फासं रसं जाणंति ते बेइंदिया जीवा। अर्थ- घोंघा,कीट-विशेष, शंख, सीप, पाँव-रहित (लट) और कीड़े (आदि) जो (जीव) (हैं) (वे) स्पर्श (और) रस को जानते हैं। (इस कारण) वे दो इन्द्रिय जीव (हैं)। पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (17)
SR No.002307
Book TitlePanchastikay Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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