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________________ 122. वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता वीयरायभावेण । जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स ।। वयणोच्चारणकिरियं (वयण) + (उच्चारणकिरियं)] [(वयण) - (उच्चारण) - (fanften) 2/1] (परिचत्ता) संकृ अनि [ ( वीयराय) वि - (भाव) 3/1] (ज) 1 / 1 सवि (झा झाय) व 3 / 1 सक - 'य' विकरण परिचत्ता वीयरायभावेण जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स वचन उच्चारण की क्रिया को (62) छोड़कर वीतराग भाव से जो ध्याता है ( अप्पाण) 2 / 1 आत्मा को [(परम) वि- (समाहि) 1 / 1] परम-समाधि (हव) व 3/1 अक घटित होती है (त) 6 / 1 सवि उसके अन्वय- वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता वीयरायभावेण जो अप्पाणं झायदि तस्स परमसमाही हवे। अर्थ - (बाह्य) वचन उच्चारण की क्रिया को छोड़कर वीतराग भाव से जो (अंतरंग में) आत्मा को ध्याता है उसके परम-समाधि घटित होती है। नियमसार (खण्ड-2)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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