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________________ 121. कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरन्तु अप्पाणं। तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ णिव्वियप्पेण॥ कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं तस्स हवे [(काय)+(आईपरदव्वे)] [(काय)-(आई-आइ)- काय आदि (पर) वि (दव्व) 7/1] परद्रव्य में [(थिर) वि-(भाव) 2/1] स्थिरभाव को (परिहर) संकृ छोड़कर (अप्पाण) 2/1 आत्मा को (त) 6/1 सवि उसके (हव) व 3/1 अक घटित होता है [(तणू) + (उसग्गं)] तणुसग्गं [(तणू)-(उसग्ग)1/1] कायोत्सर्ग (ज) 1/1 सवि (झा-झाय) व 3/1 सक ध्याता है 'य' विकरण (णिब्वियप्पेण) 3/1 निर्विकल्परूप से तृतीयार्थक अव्यय तणुसग्गं झायइ णिव्वियप्पेण अन्वय- कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरन्तु जो अप्पाणं णिब्वियप्पेण झायइ तस्स तणुसग्गं हवे। अर्थ- काय आदि परद्रव्य में स्थिरभाव छोड़कर जो (निज) आत्मा को निर्विकल्परूप से ध्याता है उसके कायोत्सर्ग घटित होता है। 1. छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'उस्सग्ग' का 'उसग्ग' किया गया है। 'उस्सग्ग' शब्द पुल्लिंग है। यहाँ नपुंसकलिंग की तरह प्रयुक्त हुआ है। नियमसार (खण्ड-2) (60)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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