SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 46. अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥ अव्वत्तं अरसमरूवमगंधं [(अरसं)+(अरूवं)+(अगंध)] अरसं (अरस) 2/1 वि रसरहित अरूवं (अरूव) 2/1 वि रूपरहित अगंधं (अगंध) 2/1 वि गंधरहित (अव्वत्त) 2/1 वि अप्रकट चेदणागुणमसइं [(चेदणागुणं)+(असई)] चेदणागुणं (चेदणगुण) 2/1 वि चेतना गुणवाला असई (असद्द) 2/1 वि शब्दरहित जाण (जाण) विधि 2/1 सक जानो अलिंगग्गहणं (अलिंगग्गहण) 2/1 वि तर्क से ग्रहण न होनेवाला जीवमणिद्दिठ्ठसंठाणं [(जीवं)+(अणिद्दिठ्ठसंठाणं)] जीवं (जीव) 2/1 जीव को [(अणिद्दिट्ठ) भूकृ अनि- न कहे हुए (संठाण) 2/1 वि] आकारवाला अन्वय- जीवं अरसं अरूवं अगंधं अव्वत्तं चेदणागुणं असई अलिंगग्गहणं अणिहिट्ठसंठाणं जाण । अर्थ- (तुम) जीव को रसरहित, रूपरहित, गंधरहित, (स्पर्श से भी) अप्रकट, चेतना गुणवाला, शब्दरहित, तर्क से ग्रहण न होनेवाला (तथा) न कहे हुए आकारवाला जानो। (विभिन्न जीवों द्वारा विभिन्न शरीराकार ग्रहण किया हुआ होने के कारण कोई एक आकार नियत नहीं किया जा सकता है)। नोटः संपादक द्वारा अनूदित (58) नियमसार (खण्ड-1)
SR No.002304
Book TitleNiyamsara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy