SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 19. दव्वत्थिएण जीवा वदिरित्ता पुव्वभणिदपज्जाया। पज्जयणएण जीवा संजुत्ता होंति दुविहेहिं ॥ दव्वत्थिएण (दव्वत्थिअ) 3/1 द्रव्यार्थिकनय से जीवा (जीव) 1/2 जीव वदिरित्ता (वदिरित्त) भूकृ 1/2 अनि रहित पुव्वभणिदपज्जाया [(पुव्व) वि-(भणिद) भूकृ- पूर्व में कही गई पर्यायों (पज्जाय) 5/1] पज्जयणएण (पज्जयणअ) 3/1 पर्यायार्थिकनय से जीवा (जीव) 1/2 जीव संजुत्ता (संजुत्त) भूकृ 1/2 अनि संयुक्त (हो) व 3/2 अक होते हैं दुविहेहिं (दुविह) 3/2 वि दो प्रकारों से होंति अन्वय-दव्वत्थिएण जीवा पुव्वभणिदपज्जाया वदिरित्ता पज्जयणएण जीवा संजुत्ता होंति दुविहेहिं । अर्थ- द्रव्यार्थिकनय से जीव पूर्व में कही गई पर्यायों से रहित (होते हैं)। पर्यायार्थिकनय से जीव (पूर्व में कही गई पर्यायों से) संयुक्त होते हैं। (इस प्रकार) (जीवों को) दो प्रकारों (द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों) से (जानो)। नियमसार (खण्ड-1) (29)
SR No.002304
Book TitleNiyamsara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy