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________________ 331 होने पर ज्योति शांत होती है, उसी प्रकार जीव जब निर्वाण प्राप्त करता है, तब वह भी पृथ्वी, आकाश या किसी भी दिशा की ओर नहीं जाता, किन्तु क्लेश क्षय होने से शांत हो जाता है। ___ बौद्ध मत के अनुसार अर्हत अनासक्त बनकर कर्म करते रहते हैं, इसलिए वे कर्म बंधन में नहीं फसते। भगवद्गीता में भी कहा है मा ते संगोऽसक्तस्त्यकर्मणि। ___ इस वाक्य में भी यही कहा है। बौद्ध मतानुसार मुक्तपुरुष दो प्रकार के हैं- १) जीवनमुक्त जीवन को धारण करते हैं, २) जिनका सांसारिक जीवन समाप्त हो गया है और जिन्होंने षडायतन शरीर का परित्याग कर दिया है।२४८ दर्शन-दिग्दर्शन में भी यही बात कही है। २४९ शांकर वेदांत दर्शन इस दर्शन के अनुसार जीव और ब्रह्म का तादात्म्य ही मुक्ति है। ब्रह्मनिष्ठ पुरुष को जीवनमुक्त कहते हैं। जीवन-मुक्त पुरुष का शरीर नष्ट होने पर उसे विदेहमुक्त कहते हैं। विदेहमुक्त को परममुक्त भी कहते हैं। विदेहमुक्ति या परममुक्ति होने पर व्यक्ति की जन्ममरणरूप सांसारिक बंधन से आत्यधिक निवृत्ति हो जाती है।२५० जब योगी दीपक के समान (प्रकाशस्वरूप) आत्मभाव के योग से ब्रह्मतत्त्व को अच्छी तरह से प्रत्यक्ष देखता है, तब वह उस अजन्मा, निश्चल सब तत्त्वों से विशुद्ध, परमदेव परमात्मा को जानकर सब बंधनों से चिरकाल के लिए मुक्त हो जाता है।२५१ जैन दर्शन में मोक्ष जैनाचार्य उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थसूत्र के दसवें अध्याय में मोक्ष का वर्णन किया है। आत्मा अनादिकाल से कर्म के कारण परतंत्र है। आते हुए कर्मों को रोकना तथा पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा करने से संपूर्ण कर्मों से जो आत्यन्तिक मुक्ति होती है उसे ही मोक्ष या निर्वाण कहा है। ___ साधना की चौदह भूमिकाओं में से तेरहवीं और चौदहवीं भूमिका पर पहुँचने पर जीव को मोक्ष-निर्वाण की प्राप्ति होती है। साधना की इन भूमिकाओं को ही 'गुणस्थान' कहते हैं बारहवें गुणस्थान के प्रारंभ में साधक के मोह का क्षय हो जाता है, और उसके अंत में ज्ञानादि निरोधक अन्य कर्म भी क्षय हो जाते हैं। तेरहें गुणस्थान में आत्मा में विशुद्ध ज्ञान ज्योति प्रकट होती है। आत्मा की इस अवस्था का नाम सयोगी केवली है। विशुद्ध ज्ञानी होकर भी शारीरिक प्रवृत्तियों से युक्त व्यक्ति को सयोगी केवली कहा जाता है। सयोग केवली सदेहमुक्त है। · सयोगी केवली जब स्वदेह से मुक्ति प्राप्त करने के लिए विशुद्ध ध्यान का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों को रोकता है, तब वह आध्यात्मिक विकास की
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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