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________________ 255 अत: शुभ या अशुभ क्रियाओं का फल कर्म अदृष्ट होने पर भी मिलता ही है। अन्यथा इस संसार में अनंत संसारी जीवों की सत्ता ही संभव नहीं है। क्योंकि अदृष्ट कर्म के अभाव में सभी पापी अनायास ही मुक्त हो जाएंगे और लोग अदृष्ट शुभकर्म को मानकर दानादि क्रियाएँ करते होगें उनके लिए यह संसार सीमित रह जायेगा। इससे सारे संसार में अराजकता एवं अव्यवस्था उत्पन्न हो जायेगी। यद्यपि अदृष्ट (कर्म) के अनिष्ट रूप फल की प्राप्ति के लिए इच्छापूर्वक कोई भी जीव क्रिया नहीं करना चाहता, फिर भी इस संसार में हिंसादि अशुभ क्रिया करने वाले अत्याधिक लोग अनिष्टफल भोगते नजर आते हैं। अत: मानना चाहिए कि, प्रत्येक क्रिया का अदृष्ट (कर्म) फल होता ही है। इस प्रकार अदृष्ट (कर्म) के शुभाशुभ फल रूप कार्य को देखकर उसके कारण को मानना चाहिए।८८ अग्निभूति गणधर ने पुन: शंका उठाई कि, शरीर आदि कार्य मूर्त होने से उसका कारण रूप कर्म भी मूर्त होना चाहिए। भगवान ने कहा- मैंने कब कहा कि, कर्म अमूर्त है? मैं तो कर्म को मूर्त ही मानता हूँ; क्योंकि उसका कार्य मूर्त है। जैसे परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ आँखों से प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते, फिर भी परमाणु का कार्य घट मूर्त होने से परमाणु भी मूर्त है, वैसे कर्म भी मूर्त है। जो कार्य अमूर्त होता है, उसका उपादान कारण भी अमूर्त होता है। जैसे ज्ञान अमूर्त है, तो उसका समवायी (उपादान) कारण आत्मा भी अमूर्त है। फिर शंका उठाई गई कि सुख-दुःख अमूर्त हैं, वे कर्म के कार्य हैं, कर्म उनका कारण इसलिए उसे अमूर्त मानना चाहिए। भगवान ने समाधान किया- 'यह नियमविरुद्ध है। जो मूर्त है वह कदापि अमूर्त नहीं होता और जो अमूर्त है, वह कदापि मूर्त नहीं होता। मूर्त कार्य का कारण मूर्त होता है, अमूर्त कार्य का अमूर्त, यह सिद्धांत है। इस दृष्टि से सुख-दुःख आदि अमूर्त का समवाय आदि कारण अथवा उपादान कारण आत्मा है और वह अमूर्त है। कर्म तो सुख-दुःखादि का अन्नादि के समान निमित्त कारण है।८९ मूर्त का लक्षण और उपादान . जैन दर्शन में कर्म को पौद्गलिक, भौतिक अथवा मूर्त बतलाया गया है। मूर्त का अर्थ है रूपी या पौद्गलिक पुद्गल और मूर्त का लक्षण- जिसमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श हो। ये ही चार पुद्गल के उपादान हैं। अमूर्त का अर्थ है- जिसमें वर्णादि न हो। आत्मा अमूर्त है। उसके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, आकार, प्रकार, शरीरादि नहीं होते। आत्मा का मौलिक स्वरूप एवं उपादान है- ज्ञान, दर्शन, आनंद (आत्मिक सुख) एवं शक्ति। पुद्गल, पुद्गल ही रहते हैं और चेतना, चेतना ही रहती है। दोनों अपना मौलिक स्वभाव और स्वरूप नहीं छोडते।९० धवला में भी यही बात कही है।९१
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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