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________________ १६ आगम के आलोक में देहादि संयोगों से एकत्व-ममत्व तोड़ने का नाम समाधि है । ध्यान रहे समाधिमरण में मरण मुख्य नहीं है, समाधि मुख्य है। समाधि की तो कोई बात ही नहीं करता; सभी मरण के बारे में ही सोचते हैं। समाधि मूलतः उपादेय है। जीवन में भी और मरण में भी एकमात्र समताभाव, समाधि ही उपादेय है। मरण तो आपतित है। एक बार जीवन में आता ही है; चाहे सहजभाव से आवे, चाहे उपसर्गादि कारणों से आवे; बस उसे सहज भाव से स्वीकार करना है। उसमें हमें कुछ करना नहीं है; वह तो जीवन के समान ही सहज है। हम जीने के लिये तो सदा तैयार हैं ही; मरने के लिये भी हमें सहजभाव से तैयार रहना है। अतिचारों की चर्चा में जीने की इच्छा के समान मरण की इच्छा को भी समाधिमरण का अतिचार कहा है। हमारी भावना तो ऐसी होनी चाहिये कि - "चाहे लाखों वर्षों तक जीऊँ, चाहे मृत्यु आज ही आ जावे।" जिससे बचाव सम्भव न हो, ऐसी मृत्यु का अवसर आ जाय तो बिना खेदखिन्न हुये उसे सहजभाव से स्वीकार कर लेना ही समाधि मरण है, सल्लेखना है। __ न तो मृत्यु को आमंत्रण देना ही समझदारी है और न आपतित मृत्यु से घबड़ाना, हर स्थिति को सहजभाव से स्वीकार करना ही समाधिमरण है, सल्लेखना है। प्रश्न - एक ओर तो आप यह कहते हैं कि जबतक समागत बीमारी का इलाज संभव हो, आपत्ति का प्रतिकार संभव हो; तबतक समाधिमरण नहीं लेना चाहिये । पहले इलाज पर ध्यान दें, प्रतिकार पर ध्यान दें। जब स्थिति काबू के बाहर हो जाय और मरण अवश्यंभावी दिखे, तब समाधिमरण व्रत लेना चाहिये । यह तो एक प्रकार से जीने की ही इच्छा हुई।
SR No.002296
Book TitleSamadhimaran Ya Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2015
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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