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________________ १२ आगम के आलोक में - देह तो पुद्गलपरमाणुओं का पिण्ड है। पुद्गल परमाणु तो समय आने पर यहीं बिखर जावेंगे, पर मैं तो अनादि अनन्त अविनाशी तत्त्व हूँ; अतः मैं तो अगले भव में भी रहने वाला हूँ। मेरा धर्म भी मेरे साथ रहने वाला है । अतः हमें देह के बारे में, धन-सम्पत्ति के बारे में न सोच कर अपने आत्मतत्त्व के बारे में सोचना चाहिये, अपने आत्मतत्त्व की संभाल में ही सावधान होना चाहिये। उक्त छन्दों में आचार्य अमृतचन्द्र हमें यही आदेश देना चाहते हैं, यही उपदेश देना चाहते हैं। इस सल्लेखना व्रत का वर्णन श्रावकाचारों में आता है। दूसरी प्रतिमा में १२ व्रतों की चर्चा के उपरान्त इसका निरूपण होता है। पण्डित प्रवर आशाधरजी भी इस सल्लेखना व्रत की चर्चा अनगार धर्मामृत में न करके सागारधर्मामृत में करते हैं। सातवें अध्याय में व्रती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन करने के उपरान्त आठवें अध्याय में सल्लेखना की बात करते हैं। आशाधरजी श्रावकों के तीन भेद करते हैं - १. पाक्षिक, २. नैष्ठिक और ३. साधक। जिसे जैनदर्शन का पक्ष है, वह पाक्षिक श्रावक है और जिसकी निष्ठा जैनदर्शन में है, वह नैष्ठिक श्रावक है । जैनदर्शन की साधना करने वाला श्रावक साधक श्रावक है। __ अव्रती सम्यग्दृष्टि पाक्षिक श्रावक है और ग्यारह प्रतिमाओं को धारण करनेवाला, उनका निष्ठापूर्वक पालन करनेवाला नैष्ठिक श्रावक है। समाधिपूर्वक मरण का वरण करनेवाला अर्थात् सल्लेखना धारण करनेवाला साधक श्रावक है । इसप्रकार यह सुनिश्चित ही है कि यह व्रत व्रती श्रावकों का व्रत है।
SR No.002296
Book TitleSamadhimaran Ya Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2015
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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