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________________ है आत्मा अर्थात् मैं स्वयं । इसीलिए यह वीतराग - विज्ञान हमारे लिए अन्य सभी विज्ञानों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। जिसप्रकार कोर्ट में कोई केस चलता है तो प्रतिवादी द्वारा सर्वप्रथम उस केस को सुनने के कोर्ट के अधिकार को चुनौती दी जाती है। आज मैं विज्ञान की तथाकथित अदालत को यह चुनौती देता हूँ कि धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक मान्यताओं को सही या गलत करार देना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है । मैं यहाँ अपनी इस चुनौती के समर्थन में कुछ तर्क प्रस्तुत करता हूँअरे भाई ! बड़ी साधारण सी बात है कि जगत में दो तरह के द्रव्य पाये जाते हैं - मूर्तिक; जिन्हें देखा, छुआ, चखा व सूंघा जा सकता है व अमूर्तिक, जैसे आत्मा, आकाश आदि, जिन्हें न तो देखा जा सकता है और न ही सूंघा जा सकता है। इनमें से भौतिक या आधुनिक विज्ञान ने मूलत: उन रूपी (मूर्तिक) पदार्थों को अपने अन्वेषण का विषय बनाया है, जिसे पुद्गल कहते हैं व इस क्षेत्र में विज्ञान ने असाधारण विशेषज्ञता हासिल की है और इस कार्य के लिए वह अभिनन्दनीय है; परन्तु विज्ञान की शोध - खोज का विषय यह आत्मा-परमात्मा मूलत: कभी नहीं रहा और न ही इस विज्ञान ने इस क्षेत्र में कोई विशेष उपलब्धि ही हासिल की है। आत्मा व परमात्मा धर्म व दर्शन के विषय रहे हैं। उक्त तथ्य पर गौर करने पर, क्या हमें स्वयं ही अपने इस अविवेक पर हंसी नहीं आयेगी कि हम अपनी आत्मा को उस विज्ञान की दया - मेहरबानी पर छोड़ देना चाहते हैं जो 'आत्मा-परमात्मा' के विषय में एक अबोध बालक से अधिक कोई हैसियत नहीं रखता है। आंख का कोई डॉक्टर आंख के बारे में चाहे कितनी ही बड़ी हस्ती ( Authority ) क्यों न हो, हृदय रोग के बारे में उसकी राय क्या महत्त्व रखती है ? क्या हम मात्र इसलिए उससे अपने हृदय की बीमारी का क्या विज्ञान धर्म की कसौटी हो सकता है ?/४७
SR No.002295
Book TitleKya Mrutyu Abhishap Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmatmaprakash Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2015
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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