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________________ है; तब 100-50 वर्षों के लिए अफसोस कैसा ? सिर्फ यही 100-50 वर्ष तो बर्बाद नहीं हुए हैं, अनादिकाल से आज तक सभी कुछ तो इसीतरह बीता है तो क्या अनन्तकाल तक रोता ही रहूँगा? जिसतरह अनादि से कल तक 'अनन्तकाल' बीता था, वैसे ही एक और 'आज' बीत गया; उस अनन्तकाल के सामने इस एक दिन या 10050 वर्षों की क्या अहमियत है कि अब उसके चिन्तन में मैं अपने आगामी अनन्तकाल को और अन्धकारमय बना डालूँ। और फिर लुट क्या गया है? यह मानवदेह भले ही कुछ दिनों की सही, पर मेरा तो अनन्तकाल पड़ा है न, आत्मा तो अनन्तकाल तक रहेगान; और अनादि के अन्धकार को मिटाने के लिए अनन्तकाल की आवश्यकता ही कहाँ है ? अन्तर्मुहूर्त में ज्ञान सूर्य उदित हो जावे तो अनादि का अन्धकार भाग जाता है, विलीन हो जाता है। . जिसकी अन्तर्मुहूर्त की आराधना, अनादि की विराधना को निष्फल कर देती है; ऐसा एक, अखण्ड-अनन्त, अनादि-अनन्त भगवान आत्मा मैं स्वयं ही तो हूँ और यूँ तो अनन्तकाल पड़ा है, उसकी उपासना के लिए; पर इस वर्तमान मनुष्य पर्याय में भी तो ऐसे अनगिनत अन्तर्मुहूर्त अभी शेष . हैं, जो अनादि की धारा को मोड़ देने में समर्थ हैं; तब क्रन्दन कैसा, पश्चाताप को अवकाश ही कहाँ है ? "It is never too late" अभी भी देर नहीं हुई है। अनादि-अनन्त इस आत्मा के जीवन में देर तो कभी होती ही नहीं। जब जाग जाओ, तभी है सबेरा। . अब तो कल से ही मुझे जुट जाना होगा, इस मंगल अभियान में संसार को सुधारने के नहीं, संसार को काटने के अभियान में। ____ पर कल से क्यों ? यदि हम हमेशा ही कल तक का ही इन्तजार करते रहे तो कौन जाने इस एक समय के वर्तमान व उस स्वर्णिम कल के बीच कितना फासला बना रहे। मुझे तो जुट जाना है, आज से ही। सिर्फ आज से ही नहीं; अभी से, अभी से। - अन्तर्द्वन्द/38 -
SR No.002294
Book TitleAantardwand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmatmaprakash Bharilla
PublisherHukamchand Bharilla Charitable Trust
Publication Year2011
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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