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________________ तरंगवती ८७ श्रेष्ठी एवं सार्थवाह ने इसके बाद तुमको खोजने के लिए सैकडों देश, नगर, खदान इत्यादि स्थानों में चारों ओर अपने आदमी भेजे । मुझे भी पिछले दिन तुम्हें खोजने के लिए प्रणाशक भेजा । आज मैं वहाँ पहुँचा परन्तु तुम्हारे संबंध में कुछ सुराग न मिला। ____ मैंने सोचा कि धनमाल से क्षीण हुए, अत्यंत पीडित, पतित, अपराधी एवं कपटविद्या में कुशल लोग सीमावर्ती गाँवों में आश्रयस्थान बनाकर रहते हैं । इसलिए मैं वहाँ गया और पूछताछ कर लेने के बाद तलाशी के लिए यहाँ आया। मुझ पर देवों की कृपा हुई जिसके फलस्वरूप मेरा श्रम सफल हुआ । सार्थवाह एवं श्रेष्ठी दोनोंने स्वयं लिखकर ये पत्र दिये हैं।' यह कहकर उसने प्रणामपूर्वक वे पत्र धर दिये। गुरुजनों का संदेश : भोजनव्यवस्था आर्यपुत्रने भी प्रणाम करके वे पत्र लिये । उनको खोला उनमें भेजे संदेश एवं आदेश धीरे-धीरे और कोई रहस्यवचन हो इस रीति से उन्हें गुप्त रखने के लिए मन में पढा । उनका अर्थग्रहण कर लेने के बाद आर्यपुत्रने मुझे सुनाने के लिए वे पत्र ऊँची आवाज से पढे । दोनों पत्रों में लिखित रोषवचन रहित, प्रसन्नता एवं विश्वास सूचित करनेवाला और शपथ के साथ 'लौट आओ' का संदेश प्रस्तुत करता मैंने सुना। यह सुनकर मेरा शोक तुरंत हवा हो गया और संतोष होने के कारण उद्भूत हास्य से हृदय भर गया। इस बीच कुल्माषहस्ती ने मेरे प्रियतम के अतिशय वेदनायुक्त, विकृत एवं सुजे बाहुओं को देखा जो चोरपल्ली में कसकर बाँधे चुस्त बँधनों के फलस्वरूप था वह बोला : 'सच सच बताना, उत्तम हाथी की सूंड समान और शत्रुओं का नाश करने में समर्थ ये तुम्हारे बाहु क्योंकर सूजन से विकृत और छेदयुक्त हुए हैं ?' तब हम दोनों ने जो भारी संकट झेलने पड़े, मौत की जो भयंकर समस्या सामने आई थी और जो कुछ किया, वह सब यथातथ्य उसको कहा । यह सुनलेने के बाद कुल्माषहस्ती ने उस गाँव के आदरणीय ब्राह्मण कुटुम्ब में हमारे लिए भोजनव्यवस्था कराने की तजवीज की और उसके साथ ऊँची जगह पर बसे
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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