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________________ तरंगवती गगनसरोवर में तैरता पूर्वतट से पश्चिमतट पहुँचा । जागकर प्रातःकाल मुखर हुए हंस, सारस, कारंडव, चक्रवाक, टिटहरे मानो मंगलपाठ करने लगे थे। __ उस समय अंधकारशत्रु, दिनचर्या का साक्षी गगनआँगन की अगनज्योत एवं जीवलोक का आलोक सूर्य उदित हुआ । चक्रवाक के शब्द से पूर्ण एवं तृप्त मनोरथवाले हम भी भागीरथी के प्रवाह के साथ बहुत दूर आ गये थे। उस समय प्रियतम ने मुझसे कहा, 'हे विशाल नितंबिनी, अब मुखप्रक्षालन का समय हो गया है। सूर्योदय के बाद रतिक्रिया करने योग्य समय नहीं माना जाता । हे बाला, दायें किनारे जो शंख के अंश जैसा श्वेत रेतीला प्रदेश है वहाँ हम जाएँ और सुंदरी, वहाँ सुखपूर्वक हम रमण करें । उतराण : लुटेरों की टोली की पकड में . तत्पश्चात् प्रियतम ने अवलोकनयंत्र का उपयोग करके देखा, कुशलता से गतिनियंत्रण करके नाव को उसी ओर मोडा और चलाया । रतिव्यायाम से थके हुए हम निर्विघ्न गंगा के श्वेत रेतीले पुलिन पर निःशंक होकर उत्तरे । वहाँ के रमणीय एवं प्रशस्त स्थलों की ओर अंगुल्यादेश परस्पर करते, भय से नितांत अनजान होने से विश्वस्त ऐसे हमने एकाएक चोरों को देखा । गंगातट की झाडी में से घुस आये, सिर पर कटके बाँधे हुए यमदूत जैसे क्रोधी, कठोर एवं कालेकलूटे चोरों ने हमें घेर लिया। ___मैं प्रियतम को लिपट पड़ी। मारे डर, उच्च एवं फटी आवाज से रोकर मैंने कहा, "प्रियतम, यकायक टूट पड़ी इस आपत्ति में, बताओ अब क्या करेंगे?' तब प्रियतम ने कहा, 'सुन्दरी, डरो मत, धैर्य धरो । इन दारुण चोरों पर प्रहार कर मैं उन्हें रोकता हूँ। तुम मुझे प्राप्त हुई इसके संतोष से मेरा मन मोहित हो गया और हथियार मैंने साथ न लिये । केवल रमण एवं भ्रमण करना होगा इतना ही सोचकर मैंने मात्र तुम्हारे लिए मणि, रत्न एवं आभूषण ही साथ लिये। सुंदरी, कामबाण से संतप्त, साहसबुद्धि पुरुष जब मौत से भेंटने का निश्चय करता है, तब आगत संकट की परवा नहीं करता । भले ही ये चोर सब समर्थ हों किन्तु यह विश्वास करो कि शक्तिशाली पुरुष के लिए भयंकर शत्रु को भी
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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