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________________ तरंगवती लोगों के आने-जाने के कारण सारी रात नगरी के द्वार खुले देख हम वहाँ से बाहर निकल गये और सीधे हम यमुनातट पहुँचे । ६६ वहाँ रस्से से खूंटे के साथ बंधी नाव हमने देखी । वह हलकी, द्रुतगति सक्षम, चौडी, अछेद तलवाली थी । उसे बंधन से खोल हम दोनों सत्वर उसमें चढ बैठे। मेरे प्रियतम ने उसमें रत्नकरंडक रखा और बल्ला सम्हाला । नागों एवं यमुना नदी को प्रणाम करके हम समुद्र की ओर बहते यमुनाप्रवाह में आगे बढने लगे । अपशुकन ठीक उसी समय चोपायों के बंदीजन जैसे निशाचर सियार हमारी दायीं दिशा में शंखनाद-सा उद्घोष करने लगे । यह सुनकर प्रियतम ने नाव रोकी और मुझसे कहा, 'सुन्दरी, थोडी देर . हमें इस शकुन का आदर करना होगा । बायीं ओर भागकर जाते सियार कुशल करते हैं, दायीं ओर भागकर जाते घात करते हैं, पीछे की ओर जानेवाले प्रवास रोक लौट पड़ने को विवश करते हैं, आगे चलकर वध अथवा बंधन कराते हैं। किन्तु इसमें एक लाभ यह है कि मेरी प्राणहानि न होगी । इस सगुण के कारण अपशकुन के दोष की मात्रा कम हो जाती है।' यह कहकर प्रियतम आपत्ति से साशंक बन गया और फिर नौका को वेग से प्रवाह में दौडाई । प्रवास नाचती - कूदती बछेरी की भाँति जलतरंगों पर सरती नौका में झटक से चलते बल्लों से दूत वेग से हम आगे बढ रहे थे । आगे की ओर देखने पर किनारे के वृक्ष गोल चक्कर खाते दीख पड़ते थे और पीछे की ओर देखते तो वे भाग जाते हों ऐसा आभास होता था । प्रवाह अतिशय मंद था इसलिए तट के वृक्ष वायु के अभाव के कारण निष्कंप थे। पंछियों के बोल भी नहीं सुनाई देने के कारण यमुनाने जैसे कि मौनव्रत लिया हो ऐसा लग रहा था । उस समय हम भयमुक्त बन गये थे । इसलिए पूर्वभव के परिचय से प्रियतम विश्वस्त हुआ और मेरे साथ हृदय शीतल कर दे ऐसा वार्तालाप करने लगा।
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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