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________________ तरंगवती तरंगवती के साहस के कारण पद्मदेव चिंतित तत्पश्चात् प्रियतमने मुझसे पूछा, 'तुम ऐसा साहस क्यों कर बैठी ? हे कृशोदरी, मैंने तुमसे कहा तो था कि गुरुजनों की संमति मिले तब तक प्रतीक्षा करना । - तुम्हारे पिता राजा के स्नेपात्र हैं, श्रीमंत हैं, व्यापारियों के मंडल में उनके वचन का आदर है, मित्रमंडल उनका बहुत विस्तृत है और वे नगरसेठ भी हैं। इस अविनय का पता लगते ही वे तुम्हारे गुण-विनय में बाधारूप बनेंगे। साथ-साथ मुझ पर रूठकर मेरे समूचे कुल का निकंदन कर डालेंगे। इसलिए उन्हें तुम्हारे यहाँ आने का पता लगे इससे पहले तुम अपने घर लौट जाओ। मैं किसी उचित उपाय से तुम्हारी प्राप्ति हो ऐसा कुछ करूंगा । हे सुन्दरी, हम यदि गुपचुप भाग जाएँ तो भी तुम्हारा पिता कडी निगरानी रखनेवाले गुप्तचरों द्वारा सब मालूम कर लेंगे इसमें तनिक भी संदेह नहीं ।" । भाग जाने का निर्णय . उसी समय कोई पुरुष राजमार्ग पर गीत गाता हुआ गुजरा । हे गृहस्वामिनी उसके गीत में यह अर्थ समाया हुआ था : - 'सहज सामने से चली आई प्रियतमा, यौवनावस्था, संपत्ति, राजलक्ष्मी एवं वर्षाऋतु की चाँदनी-इन पाँच वस्तुओं का तत्काल उपभोग कर लेना चाहिए। स्वयं जिसको चाहता हो, वह प्रियतमा प्राप्त हो जाने पर जो मनुष्य उसे ठुकराता है वह मानो स्वयं आई ललित लक्ष्मी को ठुकराने के समान है। ... जीवन के सर्वस्व जैसी अत्यंत दुर्लभ प्रियतमा दीर्घकाल बीतने पर यदि प्राप्त करने के बाद कोई हाथ से उसे जाने देता है तो वह सच्चा प्रेमी नहीं है।' - यह सुनकर हे गृहस्वामिनी, गीत के मर्म से उसे ठेस पहुंची इसलिए संपूर्ण निर्मल शरच्चंद्र समान मुखवाला वह मेरा प्रियतम कहने लगा, "प्रिये, दूसरा विचार यह भी है कि यदि हम इसी समय कहीं परदेश चले जाय, तो वहाँ रहकर लम्बे समय तक निर्विघ्न आनंद में जीवन गुजार सकें ।' _. तब रोते - रोते मैंने कहा, 'हे नाथ, अब लौटकर वापस जाने की मेरे
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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