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________________ ५८ तरंगवती जिस प्रकार हुई उसी प्रकार ठीकठीक, निशानियों के साथ प्रियतम ने शब्दों में उनका वर्णन किया था । शब्ददेहधारी मन्मथ एवं बंधन में निबद्ध वचनदेहधारी कामदेव को अर्थ द्वारा मैं निरखती रही। पद्मदेव का प्रेम पत्र 'यह पत्र मेरी हृदयनिवासिनी तरंगवती नाम की सुन्दरी को ही देने के लिए है : शिकारी मदन के हाथ में पड़ी हिरनी जैसी, अनंग के धनुष्य-सी, शोचनीय शरीरा, सुविकसित सरोजमुखी उस बाला के आरोग्य एवं कुशलक्षेम की मेरी ओर से शुभकामना । हे प्रिये कामदेव की कृपा से मेरे एवं तुम्हारे बीच के प्रेम का चिंतन होता रहने से यहाँ लेश भी असुख नहीं है। फिर भी हे तरंगवती, अनंगशप्रहार से पीडित मैं तुम्हारी अप्राप्ति के कारण मेरे शिथिल हुए कोमल अंगों को किसी भी प्रकार धारण नहीं कर सकता । तुम जो जानती हो उन सब कुशलसमाचार को निवेदित करने के अतिरिक्त हे कमलदल समान विशाल एवं सुन्दर नयनवाली तुमसे मेरी यह विनति है : हे प्रफुल्ल एवं कोमल कमल-सा वदनवाली, पूर्वभव के प्रेमप्रसंगों में व्यक्त हुए तुम्हारे गाढ प्रणयानुराग से उद्भूत कामना से मैं जल रहा हूँ। अज्ञान-अंधकार से परिपूर्ण एवं विविध योनियों से भरपूर इस सृष्टि में परलोक से निर्वासित प्रेमियों का एकदूसरे के साथ मिलना दुर्लभ होता है । हे चित्तनिवासिनी, मैं मित्रों एवं बांधवों के बलसामर्थ्य द्वारा भरसक प्रयास करके तुम्हारी प्राप्ति के लिए सेठ को जब तक प्रसन्न करूँ तब तक हे विशालाक्षी तरुणी, इस अल्पावधि में तुम गुरुजनों की प्रीति की सुखद कृपा की आशा धारण करके प्रतीक्षा करना। तरंगवती का विषाद 'हे गृहस्वामिनी, इस प्रकार उसके पत्र के विस्तृत अर्थ का मैंने तात्पर्य ग्रहण किया। उसका जो मध्यस्थभाव था वह ज्ञात करके मैं खिन्न एवं सन्न हो गई। जांघ पर कोहनी टेक, खुली हथेलियाँ में मैंने मुँह ढंक दिया और निश्चल नयनों से किसी बात में ध्यान लगाकर मानो बैठी हूँ ऐसी दशा मैंने धारण कर ली।
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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