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________________ तरंगवती ब्राह्मणकुल का, हारित गोत्र का, काश्यप का पुत्र हूँ, छंदोग ब्राह्मण हूँ । गुड, दही, भात का रसिया हूँ । क्या तुमने मेरा नाम कभी नहीं सुना ? इसलिए तुमने प्रथम मेरा अपमान किया और अब मुझे प्रसन्न करने लगी हो ?' इस प्रकार उस मूर्ख ने मुझे लक्ष्य बनाकर कोलाहल मचा दिया । ५४ तब सार्थवाहपुत्र ने उस ब्राह्मण से कहा, 'अरे ओ, तुम कितनी शेखी बघार रहे हो ? यहाँ पधारी इस महिला को निरर्थक अधिक बाधा रूप मत बनो । उचित - अनुचित समय बिन सोचे-समझे बक-बक करनेवाले तुम निकल जाओ यहाँ से, कितने तुम निर्लज्ज हो, अविनीत, असभ्य ब्राह्मणबंधु । * सार्थवाहपुत्र ने उस ब्राह्मण को जब इस प्रकार कटु वचन कहे तब वह मर्कट की भाँति मुँह बनाता वहाँ से चला गया । उसके जाने से मुझे अत्यंत संतोष हुआ : मुझ पर देवों ने कृपा की । संदेशसमर्पण तत्पश्चात् सार्थवाहपुत्र ने मुझसे इस प्रकार कहा, 'भद्रे, तुम कहाँ से आई हो ? तुम्हारे आने का प्रयोजन क्या है ? कहो, तुम्हारे लिए मुझे क्या करना है ?' इस प्रकार उसने जब कहा तब तुम्हारा प्रेमकार्य पूर्ण सफल करने के कर्तव्य से निबद्ध मैं कहने लगी : "हम लोगों की स्वामिनी ने तुम्हारे लिए मेरे द्वारा ऐसे वचन कहला भेजे हैं : "हे कुलचंद्र, विनयभूषण, अपयश - शून्य, गुणगर्वित, यशस्वी, सबके चित्ताकर्षक मेरी यह छोटी-सी विनति सुनो : दिव्यलोक में बसनेवाली अप्सरासुन्दरियों जैसी श्रेष्ठी ऋषभसेन की कुँअरी तरंगवती के हृदयमनोरथों का जिस प्रकार शमन हो और उसका मनोगत कामभाव सफल हो ऐसा करने की तुम उस पर कृपा करो । चक्रवाकभव में जैसा तुम्हारा प्रेमसंबंध था वह अब भी यदि वैसा ही हो तो हे धीर पुरुष, उसके जीवन को तुम्हारे हाथ का सहारा दो ।" तरंगवती के कथनानुसार मैंने तुमको शब्दशः उसका मौखिक संदेश कह सुनाया । उसकी प्रार्थना का पिंडरूप यह पत्र भी तुम स्वीकार करो । पद्मदेव का विरहवृत्तांत मैंने जब इस प्रकार निवेदन किया तो वह रुदन के कारण सर्वांग थरथर
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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