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________________ ४२ तरंगवती जिसकी मुखशोभा है, जो लम्बी अवधि से खोया था और हर पल जो तुम्हारे मन में रम रहा है ऐसे तुम्हारे प्रियतम को मैंने देखा । सिंहगर्जना से भयत्रस्त बनी हुई हरिणी जैसे नेत्रोंवाली हे सखी, अब तुम आश्वस्त हो जाओ और उसके संग में आनंदपूर्वक रहकर कामभोगेच्छा पूर्ण करो ।” इस प्रकार बोलती उसे मैंने संतोष से आँखें मूँद, रोमांचित हो, तुरंत हृदयोल्लास से गाढ आलिंगन दिया । मैंने कहा, "प्रिय सखी, पलट गई देहाकृतिवाले मेरे उस पूर्वजन्म के चक्रवाक पति को तुमने कैसे पहिचान लिया ?" वह बोली, 'प्रफुल्ल कमल के स्निग्ध गर्भ समान त्वचावाली हे सखी, मुझे उसका दर्शन कैसे हुआ यह वृत्तांत मैं यथाक्रम कहती हूँ, तुम वह सुनो : सारसिका ने बताया वृत्तांत चित्रदर्शन हे स्वामिनी ! गत दिन दोपहर के समय जब मैं चित्रपट्ट लेकर जा रही थी तब तुमने शपथ देकर मुझे संदेश दिया था । मैंने वह चित्रपट्ट तुम्हारे घर के विशाल आँगन के निकट के भ्रमरमंडित कमलों से सुशोभित मंडप में रखा। उस समय हे स्वामिनी कमलों को आनंद प्रदान करनेवाला सूर्य जीवलोक से आलोक समेटकर गगन में से अदृश्य हुआ । इसके बाद हे स्वामिनी ! दही के निस्यंद (मक्खन) जैसा, मन्मथ के कंद समान, ज्योत्स्ना की वर्षा करता, रात्रि के मुखचंद्र जैसा, पूरा चाँद निकला । निर्मल गगन - सरोवर में प्रफुल्लित मृगभ्रमर के चरण से क्षुब्ध ऐसे चंद्र कमलसे ज्योत्स्ना - पराग झरने लगा । तुम्हारे चित्र के प्रेक्षकों में गर्भश्रीमंत भी थे । शानदार बहुमूल्य वाहनों में सवार होकर परिजन-परिवार के बडे समूहों के साथ आते थे । तब वे राजामहाराजा के समान दीखते थे । परपुरुष की दृष्टि से अस्पृश्य रहनेवाली ईर्ष्यालु महिलाएँ भी रथ में बैठकर रात्रिविहार करने निकल पड़ी थी । कुछ तेज-तर्रार युवक अपनी मनभावन तरुणियों के साथ हाथ में हाथ पिरोकर पैदल घूम रहे थे ।
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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