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________________ तरंगवती यथोचित परीक्षण किया और कारण मेरी समझमें आ गया। अतः सविनय मस्तक पर अंजलि रखकर मैंने पिताजी से मेरा निकट का परिचय होने के कारण मन में विश्वास धारण कर कहा : 'वृक्षों की जमीन, काल, उत्पत्ति, पोषण, पोषण का अभाव तथा वृद्धिइत्यादि समझ जाने के बाद ही उनकी मूल प्रकृति और उनमें परिणमित विकार अवगत किये जा सकते हैं। और ऐसे विकार किसी कलाविद की प्रयोगविधि के कारण भी उत्पन्न होते हैं । परन्तु इस पुष्पगुच्छ का विशिष्ट रंग आपने जो पाँच कारणों का उल्लेख किया है उनमें से किसी का परिणाम नहीं । पिताजी, इस गुच्छ का जो रंग है वह सुगंध और ललाई लिये हुई पीले परागरज के स्तर के कारण है, और उसकी विशिष्ट गंध यह सूचित करती है कि वह उत्तम पद्म का पराग है।' . पिताजी बोले, 'बेटी, वन के बीच स्थित सप्तपर्ण के पुष्प में कमलरज होने की बात कैसे ठीक बैठ सकती है ?' मैंने कहा, 'पिताजी, सप्तपर्ण का यह पुष्पगुच्छ कमलरज की ललाई लिए पीला किस प्रकार हुआ होगा इसके कारण का जो अनुमान मैंने किया है वह सुनिए । जिस सप्तपर्ण के वृक्ष के ये फूल हैं उस वृक्ष के समीप में शरदऋतु में शोभा से निखर उठा कोई कमलसर होगा ही। वहाँ सूर्यकिरणों से विकसित , और अपने परागरज से रक्तिम् पीत वर्ण बनें कमलों के पराग से लुब्ध हो भ्रमरबंद उमड़ते होंगे। घने पुष्परज की ललाई लिये पीले वर्ण की आभावाले ये भ्रमर वहाँ से उड कर पास के सप्तपर्ण की पुष्पपेशियों में आश्रय लेते होंगे । भ्रमरवृंदों के पैरों में लगे कमलरज के संक्रमण से वे सप्तपर्ण के पुष्प कमलरज की झाई पा गये होंगे । यह वस्तुस्थिति इसी प्रकार होने में मुझे कुछ भी संदेह नहीं ।' मेरे यह कहने पर वह मालिन बोली, 'तुम सचमुच ताड़ गई ।' अतः पिताजीने मुझे गले लगाया, मेरा मस्तिष्क सूंघा और हर्षपूर्ण हृदय और शरीर से पुलकित हो मुझसे कहा : बेटी, तुमने रहस्य यथातथ जाना । मेरे मन में भी यही सुलझाव था, परन्तु तुमने जो कला सीखी है उसकी परीक्षा करने के हेतु मैंने तुम्हें पूछ था। कृशोदरी, तुम विनय, रूप, लावण्य, शील एवं धर्मविनय-इत्यादि गुणों से निहाल उत्तम वर यथाशीघ्र पाओ।'
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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