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________________ तरंगवती दृष्टि से देखा करेंगी।' गृहिणीने अभिवादन कर चेलियों सहित आर्या को आसन दिया। वे स्त्रियाँ भी मन से प्रसन्न होकर और आर्या को विनयसह वन्दन करके गृहिणी के निकट जमीन पर बैठ गयीं। अतः स्फुट शब्द एवं अर्थवाली, सज्झाय के योग्य लाघववाली, सुभाषितों के कारण कान एवं मन को रसायन जैसी उक्तियाँ प्रयोग में लाती आर्या जिनमान्य धर्म कहने लगी। वह धर्म जरा-व्याधि, जन्म-मरण और. संसार को समाप्त करनेवाला, सारे जगत के लिए सुखावह, ज्ञान, दर्शन, विनय, तप, संयम और पाँच महाव्रतों से युक्त, अपार सुख का फल देनवाला था । आत्मकथा कहने की आर्या से विनंती और उसका स्वीकार इसके पश्चात् उसके रूप से विस्मित गृहिणी धर्मकथा में बीच आये तनिक विश्राम का लाभ उठाकर, संयम एवं नियम में तत्पर ऐसी आर्या से हाथ जोड कहने लगी, 'शुभमस्तु' धर्मकथा तो हमने सुनी, अब कृपा करके एक अन्य बात भी हमें तुम सुनाओ। हे भगवती, मुझ पर कृपा करके मैं जो कहती हूँ वह तुम ध्यान से सुनो। . आज तुम्हारा रूप देखकर मेरे नयन धन्य हो गए, अपितु मेरे कान तुम्हारी जन्मकथा सुनने के लिए अधीर हो गये हैं। किस नामधारी पिता के लिए तुम अमीवृष्टि समान थी और जैसे कौस्तुभमणि हरि का वैसे तुम उनका हृदय आनंदित करती थी ? निर्मल ज्योत्स्ना की जननी समान जगदवंद्या तुम्हारी जननी के नामाक्षर क्या थे ? आर्या तुमने अपने घर और पति के घर कैसा सुख पाया ? अथवा किस दुःख के कारण यह अति दुष्कर प्रवज्या अपनाई ? - यह सब मैं क्रमशः जानना चाहती हूँ। परन्तु इस में तुम्हें अगम्य क्षेत्र में गमन करने का दोष शायद न लगे इसके लिए तुम सावधान रहना । लोगों में कहावत है कि नारीरत्न, नदी और साधु का मूल खोजना नहीं चाहिए और धार्मिकजन का तिरस्कार करना उचित नहीं, यह मैं जानती हूँ । तथापि तुम्हारे रूप से चकित हो कुतूहल वश मैं तुम्हें यह पूछती हूँ।' - सेठानी के इतना कह लेने पर वह आर्या बोली, 'गृहिणी, यह सब कहना दुष्कर होता है : उस अनर्थदंड का सेवन करना हमारे जैसो के लिए उचित नहीं।
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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