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________________ तरंगवती था । वह सूक्ष्म जीवों का भी रखवाला था; सभी प्रजाजनों का प्रीतिभाजन था; कुलीन, स्वमानी, सुशील, कलाकुशल और ज्ञानी था। उसकी पत्नी थी प्रियदर्शना, चंद्र जैसी सौम्य, सौभाग्यशाली और जिसके दर्शन प्रिय थे। सुव्रता गणिनी वहाँ के उपाश्रय में सुव्रता नाम की गणिनी थी। वह सिद्धिमार्ग का मर्म जानने को उद्यत थी, जिनवचनों में विशारद, बालब्रह्मचारिणी थी। अनेकविध व्रतनियम एवं उपवासों के कारण उसका शरीर क्षीण हो गया था । समूचे ग्यारह अंगग्रथों का उसे ज्ञान था । उसका शिष्यापरिवार विशाल था । . गोचरी के लिए प्रस्तुत शिष्या एक बार उसकी किसी एक शिष्या को पारांचिक तप के अंत में, छठ का पारणा करना था। अतः उसने आवश्यक एवं नियम किया। वह यथासमय जिनवचन में निपुण और श्रवणमनन में निरत ऐसी समवयस्क शिष्याओं के साथसंगाथ में दःख का क्षय करनेवाले नीरस पदार्थों की भिक्षाचर्या के लिए निकली। जिन स्थानों में त्रस जीव, बीज एवं हरियाली हो ऐसे गीली मिट्टी से भरपूर स्थानों को वह टलती चलती थी । जीवदया के पालन के लिए आगे की चार हाथ भूमि का वह निरीक्षण करती हुई आगे बढ़ रही थी। उसे भिक्षा चाहे आदर से मिले, चाहे अनादर से अथवा भिक्षादात्री चाहे निंदा, रोष या प्रसन्नता जताये - वह उसको समदृष्टि से देखती थी । शास्त्रों में जो गृह भिक्षा के लिए वर्ण्य, लोकविरुद्ध कहे हों उनको वह टालती थी - वह आर्या इस रीति से जा रही थी। उसने गोचरी के दौरान क्रम से प्राप्त हुए किसी श्रीमंत के घर में ऐसे प्रवेश किया जैसे नभतल में स्थित चंद्रलेखा का श्वेत अभ्रपुंज में प्रवेश होता है । उस गृहाँगन में, त्रस जीव, बीज एवं हरियाली से मुक्त दोषरहित एवं शुद्ध एक स्थान में सहज ही वह खडी रही । रूपवर्णन उस महालय की युवान दासियाँ, उस आर्या के रूप से आश्चर्यचकित होकर विस्फारित नेत्रों से उसे देखने लगी और बोल उठी, 'अलि ! ओ' दौड़ो! दौडो ! तुम्हें लक्ष्मीसम अनवद्य आर्या को देखना हो तो ! बारंबार लुंचन करने पपणन
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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