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________________ तरंगवती १२५ उस समय स्वर्ण के गोले जैसा गगनतिलक सूर्य पश्चिम संध्या पहुंचा। उस स्थान में गणिनी के साथ मैंने आलोचन, प्रतिक्रमण एवं दुष्कर्मनिंदा आदि किये। धर्मानुराग में ओतप्रोत हो जाने के कारण मुझे रात कब बीत गई इसका पता भी न चला। दूसरे दिन सार्थवाहपुत्र उन श्रमणश्रेष्ठ के साथ धरती पर अस्थिर निवास करता हुआ विहार कर गया । हे गृहस्वामिनी ! उस गणिनी से मैंने दोनों प्रकार की शिक्षा प्राप्त की। मैं तपश्चर्या एवं अनुष्ठान में निरत होकर वैराग्यभाव पा लिया। विधिपूर्वक विहार करते हुए हम यहाँ आ पहुंची और आज छठ का पारना करने के लिए मैं भिक्षार्थ निकली हूँ। वृत्तांत-समापन : श्रोताओं में वैराग्यभाव ... आपने मुझसे पूछा इसलिए इस प्रकार मैंने जो भी सुखदुःख की परंपरा का इसलोक एवं परलोक में अनुभव किया, वह सारी कह सुनाई । इस प्रकार उस तरंगवती श्रमणी ने जब अपना वृत्तांत कह दिया तब वह गृहस्वामिनी यह सोचने लगी, 'अहो ! इसने कितना कठिन कार्य किया ! इतनी तरुण वय में अत्यधिक देहसुख एवं वैभव होते हुए भी उसे छोड़कर यह ऐसा दुष्कर तप कर रही है ! ___ इसके बाद उस सेठानीने कहा, 'हे भगवती ! आपने अपना आत्मवृत्तान्त कहकर हम पर बडा अनुग्रह किया। आपको कष्ट पहुँचाया इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।' इस प्रकार कह लेने के बाद दूस्तर भवसागर से भयभीत हुई वह उस श्रमणी के चरणों में पडकर बोली, "विषयपंक में ग्रस्त हम लोगों का क्या होगा? हे आर्या ! प्रथम बात यह कि हम मोहग्रस्त हैं और दूसरी ओर आपकी चर्या अत्यंत दुष्कर है। तथापि आप हमको ऐसा कुछ उपदेश दीजिए जिससे हमारा संसारभ्रमण रुक जाए।' तब तरंगवतीने कहा, 'यदि तुम संयमपालन न कर सकती हो तो जिनवचन में श्रद्धा दृढ रखकर गृहस्थधर्म का पालन करो ।' आर्या का अमृतसत्त्व समान वचन सुनकर उन स्त्रियों ने उसे अनुग्रह
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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