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________________ तरंगवती १२३ तपाचरण करना ।' इस प्रकार आशिष देकर नगर में लौटना चाहते गुणवान सार्थवाह ने हमें पाँवों पडने को विवश कर दिया । सब स्वजन की बिदा श्रेष्ठी ने भी कहा, 'जो लोग सच्चे धर्म एवं तप का आचरण स्वीकार करते हैं, अनेक दुःखों से पूर्ण कुटुंब को छोड चल पडते हैं, प्रेमशृंखला से मुक्त हो जाते हैं, रागद्वेष का शमन कर के, सुखदुःख के प्रति समभाव पुष्ट कर के क्षमावान मुनि बनते हैं, पत्नीरूप कारागार के बंधनों से छुटकारा पाते हैं, मान एवं क्रोध का त्याग करके जिन-उपदिष्ट धर्माचरण करते हैं, वे धन्य हैं। ___ यथेच्छ विषयसुख भोगने में हमारा चित्त लगा है इसलिए मोह की बेडियों में हम जकडे हुए हैं और संसारत्याग करके चल निकलने के लिए अशक्त हैं।' धर्म का सच्चा स्वरूप जिसे यथातथ विदित हुआ था ऐसे श्रेष्ठी ने उस समय तप एवं नियमपालन की वृत्ति को तीव्रतर करनेवाली इस प्रकार की अनेक बातें कहीं। मेरे ससुर एवं पीहर से संबंधित स्त्रियाँ इस प्रकार शोकग्रस्त होकर रुदन करने लगी जैसे कि हम एक देह छोडकर दूसरी देह धारण कर रहे हों। दुःखी होकर अत्यंत करुण क्रंदन करती उन स्त्रियों की अश्रुवर्षा से वह उपवन की धरती मानो प्लावित हो गई। तत्पश्चात् श्रेष्ठी एवं सार्थवाह रोते-रोते स्त्रियों, मित्रों, बंधुओं एवं बालबच्चों के साथ नगरी में लौटे। लोगों के कोलाहल के बीच, कुतूहल से देखने वालों की भीड से घिरे हुए उस श्रमण के दर्शन, जिनकी दृष्टि हमारें पर केन्द्रित थी, श्रेष्ठि ने विषादपूर्ण चित्त से किये। अन्य सब संबंधी भी हमने किये इतनी सारी समृद्धि का त्याग को देखकर विस्मित हुए । धर्म के प्रति अनुराग में वे भी रंग गए और जिस प्रकार आये थे उसी प्रकार लौट गये। "
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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