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________________ तरंगवती १२१ सार्थपुत्र का प्रत्युत्तर __ मातापिता ने इस प्रकार के करुण वचन जब कहे । तब प्रव्रज्या के दृढनिश्चयी सार्थपुत्र ने एक दृष्टांत सुनाया : जैसे कोये के भीतर का अज्ञानी कीडा अपना शारीरिक हित चाहता है तथापि स्वयं तंतुओं के बंधन में बंध जाता है वैसे ही मोहवश मुग्धबुद्धि मनुष्य विषयसुख की चाह में स्त्री की खातिर सैकडों दुःख एवं रागद्वेष से अपने आपको बाँध देता है। इसके फलस्वरूप रागद्वेष एवं दुःख से अभिभूत हो कर मिथ्यात्व से घिरकर वह अनेक योनियों में जन्म पाने की गहनतावाले संसाररूप वन में उलझ जाता है। प्यारी पत्नी की प्राप्ति से उतना बहुत सुख नहीं मिल जाता, जितना - अरे ! उससे भी कई गुना अधिक - दुःख उस स्त्री के वियोग से उसे होता है। . इसी प्रकार धन पाने में दुःख, प्राप्त धन की सुरक्षा में दुःख और उसका नाश होने पर दुःख होता है-इस प्रकार धन सभी प्रकार से दुःखदायक है। माँ-बाप, भाई-भौजाई, पुत्र-बाँधव एवं मित्रगण - वे सब निर्वाणपथ के पथिक होने से स्नेहशृखलाएँ ही हैं। __ जिस प्रकार कोई सार्थ के रूप में प्रवासी मनुष्य संकटपूर्ण मार्ग से गुजरते समय उनसे सहायता पाने के लोभ से साथ के अन्य लोगों की रक्षा जागकर करता है, परंतु जंगल पार होने पर साथ छोड़कर अपने-अपने निवास के जनपद में जाने के लिए अपने-अपने मार्ग चलते बनते हैं, उसी प्रकार यह लोकयात्रारूप जीवन भी एक प्रकार का प्रवास ही है ? सगे-स्नेहीजन केवल अपने-अपने सुख-दुःख की देखभाल करने की युक्ति के रूप में यहाँ स्नेहभाव जताते हैं। . संयोग के बाद वियोग प्राप्त करके बाँधवों को त्यागकर वे सब अपने कर्मों के उदयानुसार अनेक प्रकार की विशिष्ट गतियाँ पाते हैं । नित्य बंधनकर्ता एवं विषलिप्त राग त्याग देना और वैराग्य को मुक्तिमार्ग जानना चाहिए । इस प्रकार से जब धर्मबुद्धि जाग्रत हो आए तब योग्य मुहूर्त के लिए प्रतीक्षा किये बिना, प्रव्रज्या ले लेना चाहिए, अन्यथा काल सहसा आयुष्य का अंत करने में देर नहीं करता।
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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