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________________ तरंगवती कामवृत्ति प्रेरित, बच्चे की माता बननेवाली हथिनी जब क्रीडारत हो तब उसे हाथी से अलग मत करना । १०६ यह कुलधर्म तुम पालना । जो कुलधर्म को नष्ट करता है उसके कुल की दुर्गति होती है । बेटे, बीज नष्ट न करना और कुलधर्म की भलीभाँति रक्षा करता हुआ तुम अपना धंधा करना और यह बात तुम अपनी संतान को भी कहना ।' व्याध का जीवन पिता के उपदेशानुसार मैं यथायोग्य आचरण में दृढ रहकर, व्याध का व्यवसाय करता था और वन्य प्राणियों से भरपूर उस जंगल में शिकार करके गुजारा करता था। गैंडा, वन्य बैल, हिरन, वन्य भैंसा, हाथी, सूअर आदि को मैं मारता था । समय बीतने पर बुजुर्गों ने मेरी ही जाति की मनपसंद सुंदर, सुरतसुखदा तरुणी मुझसे ब्याही । वह स्तनयुगल से सोहती, स्थूल एवं पुष्ट नितंबिनी, मृदुभाषिणी, निर्मल हास्य करनेवाली, मुख से चंद्र को लज्जित करती थी । उसके नेत्र कमल समान रतनारे थे और यौवनोचित गुणग्राम से मंडित अंगना वह सूक्ष्म एवं श्याम रोमराजि - राजति थी । उस श्यामा का नाम वनराजि था । सुंदर और आनंददायक रूप, भूने मांस का भोजन, मदभर रूपवती कामिनी और कोमल पर्णशय्या - ये व्याधजीवन के शाश्वत सुख हैं। जिनको व्याधजीवन स्वाधीन होता है उनको कौन मनमाना सुख सुलभ नहीं ? हाथी के शिकार पर सुरापान से तृप्त होकर व्याधसुंदरी याने मेरी पत्नी की भुजाओं के आश्लेष में बद्ध, पुष्ट पयोधर पीडित, सुरतश्रम से क्लान्त ऐसा मैं एक प्रातः काल उठा। मयूरपिच्छ के ध्वजमंडित और तरोताजे रक्त छिडके हुए व्याधों की देवी के स्थानक को मैं गया और प्रमुदित चित्त से प्रणाम किया । उन दिनों ग्रीष्मऋतु थी। मैंने धनुष्यबाण लिया, कंधे पर तुम्बा लटकाया और शिकार के लिए जंगल में प्रस्थान किया । मैं वन्य फूलों से बाल वेष्टित किये, पैरों में जूती पहन ली और आग
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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