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________________ १०० तरंगवती नहीं। इसके बाद हमने विनय से शरीर नवाया आकुल हुए बिना त्वरा से संयमपूर्वक असंख्य रत्नों के निधि समान उनके दर्शन करके हमने परितोष पाया। वंदना वे श्रमण माया, मद और मोहरहित थे; निःसंग थे और धर्मगुण के निधि समान थे । उन्होने ध्यान के उपयोग से काया एवं वचन की सब प्रवृत्ति बंद की थी। हम उनके निकट गये और करकमलों की अंजलि रचकर मस्तक पर धरी। फिर सविनय, परम भक्तिभाव से उस क्षण संयम का बांध जैसा सामायिक करने लगे। साथ-साथ उग्र उपसर्ग भी सहनीय हो ऐसा समग्र गुणनिधि, संपूर्ण कायोत्सर्ग हमने अव्यग्र चित्त से किया। कायोत्सर्ग कर चुकने के बाद विनयपूर्वक सर्व आवश्यक द्वारा शुद्ध, कर्मविनाशक त्रिविध वंदना पर्याप्त झुककर हमने की। इस प्रकार विशेष रूप से तो हमने नीच गोत्र की निवारक वंदना की। हमने उनसे तपस्या में प्राशुक विहार की प्राप्ति के संबंध में जानने की पृच्छा की। तब उन्होंने इस प्रकार आशिष दी : 'तुमको सर्वदुःखों का मुक्तिदाता, सर्व विषयसुख का क्षायक, अनुपम सुखरूप, अक्षय एवं अव्याबाध मोक्ष प्राप्त हो।' धर्मपृच्छा __उनके आशीर्वचन शिरोधार्य किये और हम भूशुद्धि करके दोनों मुदित मन से नीचे बैठ गये । हमने हृदय में संयम धारण किया और विनय पूर्वक झुककर उनसे निश्चित सुखकर एवं जरा-मृत्यु निवारक धर्म पूछा ।। तब उन्होंने शांति से आगमों में सविस्तर जिसका अर्थ प्रतिपादित है वह बन्ध एवं मोक्ष तत्त्वकादर्शक, कर्णमधुर रसायण समान धर्म इस प्रकार कहा : धर्मोपदेश 'प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और जिनवर उपदेशित आज्ञा : ये चार बंध एवं मोक्ष के साधन हैं। ___जो द्रव्य सामने विद्यमान, इन्द्रिय के गुणों से युक्त हो, जिसके मुख्य गुण
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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