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________________ ९८ तरंगवती हमारे जो लोग तुम्हारी खोज में निकले थे वे सब इस समाचार के साथ लौट आये कि तुम लौट रही हो । हे सुन्दरी, इससे सब आनंदित हुए । इस प्रकार हे गृहस्वामिनी, मेरे पूछने पर सारसिका ने जिस प्रकार जो जो हुआ वह सब मुझे विस्तारपूर्वक कह सुनाया। मैंने भी आर्यपुत्र की सूचनानुसार गुप्तता अक्षुण्ण रखने के हेतु से क्यों उसकी प्रतीक्षा किये बिना शीघ्रता से भाग निकलने का निर्णय लिया था इसकी स्पष्टता उसके सामने की। दंपती का आनंद-विनोद हमारे दांपत्य के कुछ दिन बीते, तब ससुरजी ने विदग्ध आचार्यों की निगरानी में पुरुषपात्र रहित एक नाटक तैयार करवाया और मेरे प्रियतम को दिया। हम अपने स्नेहीजनों, बन्धुओं, पूज्यों एवं मित्रों के समूह के बीच उत्तम महालय में रहते थे और कमलसरोवर के चक्रवाकों के समान क्रीडा करते थे। . प्रेमकेली के प्रसंग आते थे और उनसे हमारा अनुराग पुष्ट होता था। इससे हमारे हृदय एकरूप हो गये । हम एकदूसरे से एकाध पल के लिए भी अलग नहीं रह सकते थे। प्रियतम के संग बिना अल्प समय भी मुझे बहुत लम्बा लगता था। सारा समय हम निबिड प्रेमक्रीडा में निरंतर रत रहते थे। स्नान, भोजन, बनाव-सिंगार, शयन, आसन इत्यादि हृदयंगम शारीरिक भोगों में लगे रहने के बाद हम दिनान्ते नाटक देखते थे । महकते अंगराग लगाते, पुष्पमालाएँ पहनते और परस्पर एकदूसरे में आसक्त ऐसे हम निपट निश्चिंत एवं सुख में दिन गुजारते थे। ऋतुचक्र इस प्रकार चैन की वंशी बजातें, यथेष्ट विषयसुख के सागर में गोते लगाते हुए हमनें अनेक गुणमयी, निर्मल ग्रहनक्षत्रों से सुहावनी, शरदऋतुएँ व्यतीत की। ___ इसके बाद उसकी अनुगामिनी शिशिर ऋतु की शीत का उपद्रव फैल गया। अंग ठिठुर गए । रातें अधिकाधिक लम्बी होती चलीं । सूर्य शीघ्र भाग जाता था और बेहद सनसनाती ठंडी हवा चलने लगी थी। उस समय चंद्र, चंदनलेप, मणि-मोतियों का हार एवं कंकण, क्षोम के पटकूल एवं रेशम के वस्त्र सब अरुचिकर हो गये।
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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