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________________ में प्रात्मा दुःखी रहती है और अन्त में मृत्यु पाकर घोरातिघोर नरकादिक असह्य दुःखों को भोगती है। इसमें मुख्य कारण प्रात्मा का भाव ही है। इसीलिये कहा है कि मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । यह कथन भावना के बल को स्पष्ट कर रहा है । द्रव्य, क्षेत्र और भाव ये तीनों प्रात्मा के अधीन अवस्थित हैं लेकिन काल उसके अधीन नहीं है। इसलिये शुभ समय में प्रमाद न कर शुभ कार्य अवश्यमेव कर लेने चाहिए। श्रीसिद्धचक्र-नवपद-आराधना का विशिष्ट समय चार गतिरूप इस संसार-सागर में रहँट की घटिकाओं की भाँति इस जीव ने अनन्तकाल पर्यन्त परिभ्रमण किया लेकिन अभी तक इसके भवभ्रमण का अन्त नहीं आया। इस भवभ्रमण का अन्त लाने के लिए आत्मा को केवल सद्धर्म का ही शरण अभीष्ट है । जैनधर्म में प्रात्मा की प्रगति, विकास और आत्मोद्धार के लिए सर्वज्ञ विभु तीर्थकर परमात्माओं ने प्रतिदिन धर्म आराधना करने पर बल दिया है। उस में अवलम्बन रूप विशिष्ट आराधना के लिए पर्वतिथियों, अठाइयों, तीर्थंकरों के कल्याणक दिवसों श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-४
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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