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________________ पू० प्राचार्य श्री ने बतलाया है कि श्री सिद्धचक्र-भगवन्तों की आराधना से आत्मा के राश त्रु गद्वं षादि नष्ट हो जाते हैं और सद्गुण प्रकट हो जाते हैं; फलस्वरूप आत्म-अोज जगमगाने लगता है। निश्चय ही सिद्धचक्र सद्गुण रूपी रत्नों की खान है। ये रत्नाकर हैं। जो इनकी आराधना निर्मल भाव से करता है, उसकी दरिद्रता दूर हो जाती है। श्रीपाल महाराजा श्री नवपदजी की आराधना से नीरोग हो गये। ऐसा उल्लेख श्री 'सिरि सिरिवाल कहा' में है : "एवं च संथगतो सो जाओ नवपएसू लीगमरणो। जर कहवि तह पेक्खइ अप्पारणं तन्मयं चेव ।।"* अष्टकर्म-क्षय के लिए श्री सिद्धचक्र-नवपदजी का ध्यान अनुपम है । श्रीपाल रास के चतुर्थ खण्ड की सातवीं ढाल में वाचक शिरोमणि कविरत्न श्री यशोविजय महाराज कहते हैं-- अरिहंत सिद्ध तथा भला, प्राचारज उवज्झाय । मुनि दंसरण नाण चरित्त तव, ए नवपद मुक्ति उपाय ।। पू० प्राचार्यश्री ने इस पुस्तक में श्री सिद्धचक्र-नवपदजी के स्वरूप का जो उद्घाटन किया है, उससे भव्यजनों में धर्म-रुचि जागृत होती है। धर्म प्रात्मा को परमात्मा में विलय करने का अवलम्बन है। यह पुस्तक मोहान्धकार में भटकते मानव को ज्ञान के प्रकाश में ले आएगी। सदाचार एवं सद्भावों से विभूषित होकर मनुष्य मुक्ति-मंदिर की मंगल-यात्रा के लिए प्रस्थान कर सकेगा। पू० प्राचार्य श्री को ऐसी बोधगम्य पुस्तक-सृजन के लिए हमारा हार्दिक अभिनन्दन और विनम्र वन्दन । २७-४-८४ -जवाहरचन्द्र पटनी मानद निदेशक, श्री पा. उ. जैन शिक्षण संघ, फालना (राज.) * श्री रत्नशेखर सूरि रचित काव्य-ग्रन्थ । ( १० )
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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