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________________ जैन मान्यता के अनुसार जब सूर्य जम्बूद्वीप में 180 योजन से अधिक प्रवेश कर परिभ्रमण करता है तो अधिक से अधिक 18 मुहूर्त का दिन और कम से कम 12 मुहूर्त की रात होती है। डॉ. विन्टरनित्ज सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्राप्ति को वैज्ञानिक ग्रन्थ स्वीकार करते हैं। अन्य पाश्चात्य विचारकों ने भी उनमें उल्लिखित गणित और ज्योतिष विज्ञान को महत्त्वपूर्ण माना है। डॉ. शुब्रिग ने जर्मनी की हेमबर्ग यूनिवर्सिटी में अपने भाषण में कहा कि जैन विचारकों ने जिन तर्क सम्मत एवं संसंमत सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया वे आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं की दृष्टि से भी अमूल्य एवं महत्त्वपूर्ण है। विश्वरचना के सिद्धान्त के साथ-साथ उसमें उच्चकोटि का गणित एवं ज्योतिष विज्ञान भी मिलता है। सूर्यप्रज्ञप्ति में गणित एवं ज्योतिष पर गहराई से विचार किया गया है। अतः सूर्यप्रज्ञप्ति के अध्ययन के बिना भारतीय ज्योतिष के इतिहास को सही रूप से नहीं समझा जा सकता। चन्द्रप्रज्ञप्ति में चन्द्र के परिभ्रमण का उल्लेख मुख्य रूप से हुआ है। चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्य प्रज्ञप्ति का वर्णन प्रायः समान है। केवल मंगलाचरण के रूप में जो 18 गाथाएँ दी गई हैं वे विशेष हैं। 444. सेतुबन्ध काव्य की प्रौढ़ता और अभिव्यक्ति की सघनता के कारण प्राकृत की जिन कृतियों को शास्त्रीय महाकाव्य कहा जाता है उनमें प्रवरसेन कृत सेतुबन्ध अद्वितीय शास्त्रीय महाकाव्य है। बाल्मीकी रामायण के युद्धकाण्ड की कथावस्तु सेतुबन्ध के कथानक का आधार है। इस महाकाव्य में मुख्यरूप से दो घटनाएं हैं।- सेतुबन्ध और रावणवध। अतः इन दोनों प्रमुख घटनाओं के आधार पर प्रवरसेन के इस काव्य का नाम सेतुबन्ध अथवा रावणवध प्रचलित हुआ है। इस काव्य के टीकाकार रामदास भूपति ने इसे रामसेतु भी कहा है और अपनी टीका को रामसेतुप्रदीप। वस्तुतः महाकवि ने इस ग्रन्थ में सेतु - रचना के वर्णन में अधिक उत्साह दिखलाया है। अतः सेतुबन्ध इस काव्य का सार्थक नाम है। रावणवध को इस काव्य का फल कहा जा सकता है। सेतुबन्ध के रचनाकार कवि प्रवरसेन है। क्योंकि इस ग्रन्थ के प्रत्येक आश्वास के अन्त में पवरसेन विरइए का उल्लेख है। सेतुबन्ध की कुछ प्रतियों में प्राकृतरत्नाकर 0373
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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