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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 381 १ स्त्री को अनर्थ उत्पन्न करनेवाली, चंचलचित्तवाली और नरक को जाने के मार्ग समान मानकर अपना हित चाहनेवाला श्रावक उसके वश में न रहे। २ इन्द्रिय रूपी चपल अश्व हमेशां दुर्गति के मार्ग में दौड़ते हैं, संसार का यथार्थ स्वरूप जाननेवाले श्रावक सम्यग्ज्ञान रूपी लगाम सेकुमार्ग में जाने से उनको रोकना।३ धन को सकल अनर्थों का, प्रयास का तथा क्लेश का कारण और असार समझकर बुद्धिशाली पुरुष स्वल्पमात्र भी द्रव्य का लोभ न रखे। ४ संसार स्वयं दुःखरूप, दुःखदायी फल का देनेवाला, परिणाम में भी दुःख की संतति उत्पन्न करनेवाला, विडंबनारूप और असार है, यह समझकर उसमें प्रीति न रखना। ५ विषय विष के समान क्षणमात्र सुख देनेवाले हैं, ऐसा निरन्तर विचार करनेवाला पुरुष संसार से डरनेवाला और तत्त्वज्ञाता होने से उनकी अभिलाषा नहीं करे। ६ तीव्र आरम्भ से दूर रहे निर्वाह न हो तो सर्वजीवों पर दया रखकर विवशता से स्वल्प आरम्भ करे, और निरारंभीसाधुओं की स्तुति करे। ७ गृहवास को पाश (बन्धन) समान मानता हुआ, उसमें दुःख से रहे, और चारित्रमोहनीय कर्म खपाने का पूर्ण उद्यम करे। ८ बुद्धिमान पुरुष मन में गुरुभक्ति और धर्म की श्रद्धा रखकर धर्म की प्रभावना, प्रशंसा इत्यादिक करता हुआ निर्मल समकित का पालन करे। ९ विवेक से प्रवृत्ति करनेवाला धीरपुरुष, 'साधारण मनुष्य जैसे भेंड प्रवाह से याने जैसा एकने किया वैसा ही दूसरो ने किया ऐसे असमझ से चलनेवाले हैं, यह सोचकर लोकसंज्ञा का त्याग करे। १० एक जिनागम छोड़कर दूसरा प्रमाण नहीं और अन्य मोक्षमार्ग भी नहीं, ऐसा जानकर सर्व क्रियाएं आगम के अनुसार करे। ११ जीवजैसे यथाशक्ति संसार के अनेकों कृत्य करता है, वैसे ही बुद्धिमान् पुरुष यथाशक्ति चतुर्विध धर्मको, आत्मा को बाधा-पीड़ा न हो उस रीति से करे। १२ चिंतामणि रत्न की तरह दुर्लभ, ऐसी हितकारिणी और निरवद्य धक्रिया पाकर उसको सम्यग् रीति से आचरण करते अपने को देखकर कोई अज्ञानी लोग अपनी हंसी करे, तो भी उससे मन में शर्म नहीं करना। १३ देहस्थिति के मूल कारण धन, स्वजन, आहार, गृह इत्यादि सांसारिक वस्तुओं में राग-द्वेष न रखते हुए संसार में रहना। १४ अपना हित चाहनेवाला पुरुष मध्यस्थ स्थिति में रहकर तथा नित्य मन में समता का विचार रखकर राग-द्वेष के वश न हो तथा कदाग्रह को भी सर्वथा छोड़ दे। १५ नित्य मन में सर्ववस्तुओं की क्षणभंगुरता का विचार करनेवाला पुरुष धनादिकका स्वामी होते हुए भी धर्मकृत्य को बाधा पहुंचे ऐसा उनमें लिप्त न हो। १६ संसार से विरक्त हुआ श्रावक भोगोपभोग से जीव की तृप्ति नहीं होती, ऐसा विचारकर स्त्री के आग्रह से बहुत ही विवश होने पर ही कामभोग का सेवन करे।' १७ वेश्या की तरह आशंसा रहित श्रावक आज अथवा कल छोड़ दूंगा ऐसा विचार करता हुआ परायी वस्तु की तरह शिथिलभाव से गृहवास पाले। उपरोक्त सत्रह गुणयुक्त पुरुष जिनागम १. टी.वी., विडीयो, ब्लु फिल्में, अश्लील साहित्य पढ़कर वासना को उत्तेजीत करनेवाले महावीर की संतानें इस १६वें लक्षण पर अवश्य चिन्तन मनन करें।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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