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________________ 353 श्राद्धविधि प्रकरणम् प्रायश्चित्त न करनेवाले को इस भव में तथा परभव में कितना दुःख होता है, वह जाननेवाले; ऐसे आठ गुणवाले गुरु आलोचना देने में समर्थ हैं। आलोअणापरिणओ, सम्मं संपट्टिओ गुरुसगासे। जइ अंतरावि कालं,करिज्ज आराहओ तहवि ।।५।। अर्थः __ आलोचना लेने के शुभ परिणाम से गुरु के पास जाने को निकला हुआ भव्यजीव, जो कदाचित् आलोचना लिये बिना बीच में ही उसका आयुष्य पूर्ण हो जाय, तो भी वह आराधक होता है। आयरिआइ सगच्छे, संभोइअ इअर गीअ पासत्थे। सारूवी पच्छाकड, देवय पडिमा अरिह सिद्धे ।।६।। अर्थः साधु अथवा श्रावक ने प्रथम तो अपने गच्छ के ही जो आचार्य हो, उनके पास अवश्य आलोचना लेना। उनका योग न हो तो अपने गच्छ के ही उपाध्याय, वे भी न हों तो अपने गच्छ के ही प्रवर्तक, स्थविर अथवा गणावच्छेदक आदि से आलोचना लेना। अपने गच्छ में उपरोक्त पांचों का योग न हो तो संभोगिक-अपनी सामाचारी को मिलते हुए दूसरे गच्छ में आचार्य आदि पांचों में जिसका योग मिले, उसीसे आलोचना लेना। सामाचारी को मिलते हुए परगच्छ में आचार्य आदि का योग न हो तो, भिन्न सामाचारीवाले परगच्छ में भी संवेगी आचार्यादिक में जिसका योग हो, उससे आलोचना लेना यह भी न बने तो गीतार्थ पासत्था के पाससे आलोचना लेना, वह भी न बने तो गीतार्थ सारूपिक से आलोचना लेना। उसका भी योग न मिले तो गीतार्थ पश्चात्कृत से आलोचना लेना। श्वेतवस्त्रधारी, मुंडी, लंगोट रहित, रजोहरण आदि न रखनेवाला, ब्रह्मचर्य पालन न करनेवाला, भार्यासहित और भिक्षावृत्ति से निर्वाह करनेवाला सारूपिक कहलाता है, सिद्धपुत्र तो शिखा और भार्या सहित होता है। चारित्र तथा साधु वेष त्यागकर जो गृहस्थ हो गया हो वह पश्चात्कृत कहलाता है। ऊपर कहे हुए पासत्थादिक को भी गुरु की तरह यथाविधि . वन्दना आदि करना। कारण कि, धर्म का मूल विनय है। जो पासत्थादिक अपने आपको गुणरहित माने और इसीसे वह वन्दना न करावे, तो उसे आसन पर बैठाकर प्रणाम मात्र करना, और आलोचना लेना। पश्चात्कृत को तो दो घड़ी सामायिक तथा साधुका वेष देकर विधि सहित आलोचना लेना। उपरोक्त पासत्थादिक का भी योग न मिले तो राजगृही नगरी में गुणशिलादिक चैत्य में जहां अनेकबार जिस देवता ने अरिहंत गणधर आदि महापुरुषों को आलोचना देते देखा हो, वहां उस सम्यग्दृष्टि देवता को अट्ठम आदि तपस्या से प्रसन्न करके उसके पाससे आलोचना लेना। कदाचित् उस समय के देवता का च्यवन हो गया हो और दूसरा उत्पन्न
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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