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________________ 316 श्राद्धविधि प्रकरणम् . भी अल्प रखनेवाला होता है, उसको देवता भी प्रणाम करते हैं। नीतिशास्त्रादिक में निद्रा विधि इस प्रकार कही गयी है कि — खटमल (माकण) आदि जीवों से भरा हुआ, छोटा, टूटा हुआ, कष्टकारी, मैला, सड़े हुए पायेवाला तथा अग्निकाष्ठ (अरणी) का बना हुआ पलंग अथवा चारपाई सोने के काम में न लेना। सोने तथा बैठने के काम में चार जोड़ तक का काष्ठ उत्तम है; पर पांच या अधिक जोड़ काष्ठ में सोनेवाले मनुष्य उसके कुल का नाश करता है। अपने पूजनीय पुरुष से ऊंचे स्थान में न सोना तथा पैर भीगे हुए रखकर, उत्तर अथवा पश्चिम दिशा को मस्तक करके, बांस के समान लंबा होकर पैर रखने के स्थान में मस्तक रखकर न सोना; बल्कि हस्तिदंत की तरह सोना । देवमंदिर में, वल्मीक (बामला) पर (सर्प के बील पर) वृक्ष के नीचे, स्मशान में तथा उपदिशा (कोणदिशा) में मस्तक करके न सोना । कल्याण की इच्छा करनेवाले पुरुष को सोते समय मलमूत्र की शंका हो तो उसका निवारण करना, मलमूत्र त्यागने का स्थान कहां है? उसे बराबर जानना चाहिए, जल समीप है कि नहीं? सो तलाश करना, तथा द्वार बराबर बंद करना, इष्टदेव को नमस्कार करके अपमृत्यु का भय दूर करना, पवित्र होना, तत्पश्चात् यथारीति वस्त्र पहनकर रक्षामंत्र से पवित्र की हुई चौड़ी शय्या में सर्व आहार का परित्याग करके बायीं करवट से सो रहना । क्रोध से, भय से, शोक से, मद्यपान से, रतिक्रीड़ा से, बोझा उठाने से वाहन में बैठने से तथा मार्ग चलने से ग्लानि पाया हुआ, अतिसार, श्वास, हिचकी, शूल, क्षत (घाव) अजीर्ण आदि रोग से पीड़ित, वृद्ध, बाल, दुर्बल, क्षीण और तृषातुर आदि पुरुषों को कभी दिन में भी सोना चाहिए। ग्रीष्मऋतु में वायु का संचय, हवा में रुक्षता तथा छोटी रात्रि होती है, इसलिए उस ऋतु में दिन में निद्रा लेना हितकारी है। परंतु शेष पुरुषों के शेष ऋतु में दिन में निद्रा लेने से कफ, पित्त होने से निद्रा लेनी योग्य नहीं होती है। अधिक आसक्ति से तथा बिना अवसर निद्रा लेना अच्छा नहीं । कारण कि वह निद्रा कालरात्रि की तरह सुख तथा आयुष्य का नाश करती है। सोते समय पूर्वदिशा में मस्तक करे तो विद्या का और दक्षिण दिशा में करे तो धन का लाभ होता है, पश्चिम दिशा में मस्तक करे तो चिंता उत्पन्न हो तथा उत्तरदिशा में करे तो मृत्यु अथवा हानि होती है। सोने की विधि : आगम में कही हुई विधि इस प्रकार है -शयन के समय चैत्यवंदन आदि करके देव तथा गुरु को वंदन करना । चौविहार आदि पच्चक्खाण ग्रंथिसहित उच्चारण करना, तथा पूर्व में ग्रहण किये हुए व्रत में रखे हुए परिमाण का संक्षेप करने रूप देशावकाशिक व्रत ग्रहण करना । दिनकृत्य में कहा है कि -- पाणिवह मुसादत्तं, मेहुणं दिणलाभणत्थदंडं च। अंगीकयं च मुत्तुं, सव्वं उवभोगपरिभोगं ॥ १ ॥ हिमज्झं मुत्तू, दिसिगमणं मुत्तु मसगजूआई ।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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