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________________ २० संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास आचार्यों द्वारा निर्देशित रूपों का संग्रह पाणिनीय तन्त्र में भी अभीष्ट है । महाभाष्यकार लिखते हैं 'इहान्ये वैयाकरणा मजेरजादौ संक्रमे विभाषा वृद्धिमारभन्तेपरिमृजन्ति' परिमार्जन्ति । तदिहापि साध्यम् ।' महा० १|१|३|| अर्थात्- अन्य वैयाकरण अजादि कित् ङित् प्रत्ययों के परे मृज को विभाषा वृद्धि कहते हैं- परिमृजन्ति, परिमार्जन्ति । यह कार्य यहां (= पाणिनीय तन्त्र) में भी साध्य है । पाणिनीय शास्त्रानुसार 'परि मृज् अन्ति' में अन्ति के ङित् होने से वृद्धि का नित्य निषेध प्राप्त होता है । १० इतनी भूमिका के पश्चात् हम पाणिनीय सूत्रों की उस भाषा - विज्ञानिक व्याख्या का स्वरूप दर्शाने का प्रयत्न करते हैं, जिससे शास्त्र के मूलभूत सिद्धान्त की रक्षा हो, शास्त्र - प्रवक्ताओं के कौशल का परिचय प्राप्त हो, और प्राचीन संस्कृतभाषा में विद्यमान, परन्तु उत्तरकाल में विलुप्त, प्रकृतियों (घातु प्रातिपदिकों) वा उनसे १५ निष्पन्न होने वाले शब्दों का परिज्ञान होवे, और उससे प्राचीन संस्कृतभाषा में विद्यमान विपुल शब्दराशि का बोध अनायास हो सके इतना ही नहीं, हमारे द्वारा प्रस्तुत व्याख्या सरणि का ज्ञान होने पर आधुनिक भाषा - शास्त्रियों के द्वारा संस्कृतभाषा पर जो आक्षेप किये जाते हैं, उनका भी निराकरण करने में सहायता मिलेगी । २० पाणिनीय सूत्रों की भाषाविज्ञानिक व्याख्या वस्तुत व्याख्या-‍ - सरणि पर विचार करने से पूर्व व्याकरणशास्त्र में शब्द-साधुत्व के निदर्शन के लिए जो प्रक्रिया अपनाई गई है, उसे २५ जान लेना आवश्यक है । वैयाकरणों ने शब्द - साधुत्व के निदर्शन के लिए जो प्रक्रिया अपनाई है, उस पर यदि गम्भीरता से विचार किया जाये, तो उसके तीन भेद स्पष्ट उपलब्ध होते हैं । एक प्रक्रिया वह है - जिसमें धातु वा प्रातिपदिक से प्रत्यय होने पर स्वाभाविक विकार होते हैं । यथा ३० इकारान्त उकारान्त ऋकारान्त वा अकारोपध धातु से त्रित् णित्
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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