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________________ इक्कीसवां अध्याय धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (२) ( पाणिनि तथा तत्सोक्त धातुपाठ के वृत्तिकार ) ६. पाणिनि (२९०० वि० पूर्व) सम्पूर्ण संस्कृत वाङमय में आचार्य पाणिनि का शब्दानुशासन ही एकमात्र ऐसा आर्ष-तन्त्र हैं, जो अपने पांचों अवयवों सहित उपलब्ध हैं। इसलिए पाणिनीय तन्त्र का महत्त्व अत्यधिक हैं। इतना ही नहीं, उत्तरवर्ती प्रायः सभी वैयाकरण इस शास्त्र के सम्मुख नतमस्तक हैं। उनका प्रधान उपजीव्य एकमात्र यही तन्त्र है। पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन की कृत्स्नता के लिए सूत्रपाठ के साय जिन अङ्गों का प्रवचन किया था, उन में धानपाठ प्रधान है। पाणिनि ने स्वप्रोक्त धातुपाठ के अनुकूल ही सूत्रपाठ का प्रवचन किया, यह दोनों की तुलना से स्पष्ट हैं । पाणिनीय वैयाकरणों में जिस धातुपाठ का पठन-पाठन प्रचलित है वह प्राणिनिप्रोक्त हैं, ऐसा प्रायः सभी वैयाकरणों का मत हैं । धातुपाठ के पाणिनीयत्व पर आक्षेप न्यासकार का प्राक्षेप-पाणिनीय वैयाकरणों में काशिका का व्याख्याता जिनेन्द्रबुद्धि ही ऐसा व्यक्ति है, जो धातुपाठ को पाणिनिप्रोक्त नहीं मानता । वह लिखता है १-'प्रतिपादितं हि पूर्व गणकारः पाणिनिर्न भवतीति । तथा चान्यो गणकारोऽन्यश्च सूत्रकारः।' ७।४।३, भाग २, पृष्ठ ८४० । अर्थात्-पहले प्रतिपादन कर चुके हैं कि गणकार (=धातुगणकार) पाणिनि नहीं है । अन्य गणकार (=धातपाठ-प्रवक्ता) है, और अन्य सूत्रकार। २–'यद्यत्र त्रिग्रहणं क्रियते निजादीनामन्ते वत्करणं किमर्थम् ? २५
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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