SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 570
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (५१७) एक देवसहस्रेण सेवितोमध्यपर्षदि । रूट पल्यसार्द्धसप्तदशतोयधिजीविना ॥३६२॥ मध्यम पर्षदा के एक हजार देवता सेवा करते हैं उनका आयुष्य साढ़े सत्तरह सागरोपम और छ: पल्योपम का होता है । (३६२) दि सहस्रया च देवानां, सेवितो बाह्य पर्षदाम् । पञ्चपल्ययुतापार्द्धाष्टा दशार्णवजीविनाम् ॥३६३॥ और बाह्य पर्षदा के दो हजार देवता सेवा करते हैं, उनका आयुष्य साढ़े सत्तरह सागरोपम और पाँच पल्योपम का होता है। (३६३)। सामानिकामरैः सेव्यः, सहौस्त्रिशता संदा । सहस्त्रैस्त्रिशतैकै क दिश्यात्मरक्षकैः सुरैः ॥३६४॥ इस इन्द्र महाराज की सेवा में तीस हजार सामनिक देवता होते हैं और एकएक दिशा में तीस-तीस हजार आत्मरक्षक देवता होते हैं । (३६४) प्राग्वत्राय स्त्रिंशलोकपालसैन्यतदीश्वरैः ।। देवैरन्यैप्युपास्यः सहस्रारनिवासिभिः ॥३६५॥ .. पूर्व इन्द्रों के समान इस इन्द्र की त्रायस्त्रिंश, लोकपाल, सैन्य सैन्याधिपति तथा सहस्रार निवासी अन्य देवों से सेवा होती है । (३६५) सातिरेकान् षोडशेष जम्बूद्वीपान् विकुर्वितैः । रूपैर्भर्तु क्षमस्तिर्यगसंख्यान् द्वीपवारिधीन् ॥३६६॥ यह इन्द्र अपने रचित रूप से सोलह जम्बूद्वीप से कुछ अधिक और तिरछे असंख्य द्वीप-समुद्रों को भरने में समर्थ होता है । (३६६) ___ सविमान सहस्राणां, षण्णामैश्चर्यमन्वम् ।। भुंक्ते भाग्योजसां भूमिरिष्टादशाब्धिजीवितः ॥३६७॥ सप्तभि कुलकं॥ अठारह सागरोपम के आयुष्य वाले और अति भाग्यवान् तथा तेजस्वी इस इन्द्र महाराजा का छ: हजार विमानों का ऐश्वर्य भोगता है । (३६७) — अस्य यानविमानं च, विदितं विमलाभिधम् । . देवश्च विमलाभिख्यो, नियुक्तस्तद्विकुर्वणे ॥३६८॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy