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________________ (५६४) इस अनादि संसार में रहते प्रत्येक प्राणी को ये सब कर्म अनादि काल से ही चलते आ रहे हैं । (२८२) स्वभावतोऽकर्मकाणां जीवानां प्रथमं यदि । संयोगः कर्मणामंगी क्रियते समये क्वचित् ॥२८३॥ तदा कर्म क्षयं कृत्वा सिद्धानामपि देहिनाम् । पुनः कदाचित्समये कर्मयोगः प्रसज्यते ॥२८४॥ ... यदि इस तरह स्वीकार करें कि यह 'स्वाभावतः अकर्मक' जीवों को अमुक समय में कर्मों का पहले संयोग हुआ है तो फिर कर्म का क्षय करके सिद्ध हुए प्राणी को भी फिर क्वचित् कर्म का योग होगा- ऐसा स्वीकार करना पड़ेगा। (२८३-२८४) विश्लेषस्तु भवेज्जीवादनादित्वेऽपि कर्मणाम् । ज्ञानादिभिः पावकाद्यैरूपलस्येव कांचनात् ॥२८५॥ और कर्म अनादि होने पर भी ज्ञानादि के द्वारा जीव से अलग होते हैं, जैसे अग्नि आदि से सुवर्ण से पत्थर अलग होता है उसी तरह कर्म अलग होता है । (२८५) नन्वेवमन्तरायाणां पंचानां मूलतः क्षये । संजाते किं ददाव्यर्हन् सततं लभते च किम् ॥२८६॥ भुक्ते किमुपभुङ्क्ते वा वीर्यं किं वा प्रवर्तयेत्। न चेत्किंचित्तदा तेषां विजानां किं क्षये फलम् ॥ २८७॥ (युग्मं ।). यहां शंका करता है कि जब इस तरह पांच अन्तराय कर्म का मूल से क्षय होता है तब अहंत भगवन्त क्या दान देते हैं ? क्या लाभ प्राप्त करते हैं? क्या भोग उपभोग भोगते हैं ? और क्या वीर्य फैलाते हैं ? यदि इसमें कुछ भी होता हो तो फिर अन्तराय कर्म के क्षय से क्या फल होता है ? (२८६-२८७) अत्रोच्यतेऽर्हतः क्षीण निःशेषघाति कर्मणः । गुणः प्रादुर्भवत्येषोऽन्तरायाणां क्षये यतः ॥२८॥ ददतो लभमानस्य भुंजतो वोप भुंजतः । वीर्यं प्रयुंजतो वास्य नान्तरायो भवेत्क्वचित् ॥२८॥ दानलाभादिकं त्वस्य न सम्भवति सर्वदा । तत्तत्कारण सामग्रयां सत्यां भवति नान्यथा ॥२६॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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