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________________ ( ५४४ ) वेदनीयं द्विधा सातासात रूपं प्रकीर्तितम् । स्यादिदं मधुदिग्धासिधारा लेहन सन्निभम् ॥१५३॥ तीसरा वेदनीय कर्म है । यह कर्म सातावेदनीय और असातावेदनीय- इस तरह दो प्रकार है । यह मधु लगी तलवार के धार को चाटने के समान है । (१५३) 'यद्वेद्यते प्रिय तया स्त्रगादि योगात् भवेत्तदिह सातम् । यत्कंटकादितोऽप्रिय रूपतया वेद्यते त्वसातं तत् ॥ १५४ ॥ पुष्प की माला आदि के योग के समान जिसे जो प्रिय रूप अनुभव होता है। वह शाता वेदनीय कर्म है और जो कंटक आदि के योग के समान अप्रिय रूप में अनुभव होता है वह अंशाता वेदनीय कर्म कहलाता है । ( १५४) यन्मद्यवन्मोहयति जीवं तन्मोहनीयकम् । द्विधा दर्शन चारित्र मोह भेदात्तदीरितम् ॥१५५॥ वह चौथा मोहनीय कर्म है । जो मद्यं के समान जीव में मोह जगाता है 1 मोहनीय कर्म है । इसके दो भेद हैं - १. दर्शन मोहनीय और २. चारित्र मोहनीय । (१५५) मिथ्यात्व मिश्र सम्यक्त्व भेदात्तत्रादिमं त्रिधा । चारित्र मोहनीयं तु पंचविशंतिधा भवेत् ॥१५६॥ कषायाः षोडश नव नौकषायाः पुरोदिताः । इत्यष्टाविंशति विधं मोहनीयमुदीरितम् ॥१५७॥ दर्शनमोहनीय कर्म के तीन भेद हैं - १. मिथ्यात्व, २ . मिश्र और ३. सम्यक्त्व । नौकषाय- इस चारित्र मोहनीय के पच्चीस भेद हैं- सोलह कषाय और बारह तरह मोहनीय कर्म के अट्ठाईस प्रकार होते हैं । (१५६-१५७) एति गत्यन्तरं जीवो येनायुस्तच्चतुर्विधम् । देवायुश्च नरायुश्च तिर्यङ्नैरयिकायुषी ॥१५८॥ पांचवा आयु कर्म है । जिस कर्म से जीव अन्य गति में जाता है वह आयुक है। इसके चाद भेद हैं - १. देव आयुष्य, २. मनुष्य आयुष्य, २. तिर्यंच आयुष्य और ४. नरक आयुष्य । (१५८) इदं निगड तुल्यं स्याद समाप्येदमंगभाक् । जीवः परभवं गन्तुं न शक्नोति कदापि यत् ॥१५६॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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