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________________ (५२८) वनस्पतिकायिकेषूत्पद्यमानो वनस्पतिः । भवाननन्तान् कुर्वीत निरन्तरं परिभ्रमन् ॥४६॥ . वनस्पतिकाय जीव वनस्पतिकाय में ही उत्पन्न होकर हमेशा परिभ्रमण करता हुआ अनन्त जन्म धारण करता है । (४६) प्रत्येक मुत्पद्यमानाः पृथिव्यादिषु पंचसु । भवान् संख्यान् विदधति प्रत्येकं विकलेन्द्रियाः ॥५०॥. पृथ्वीकाय आदि पांच में से प्रत्येक में उत्पन्न होता हुआ प्रत्येक विकलेन्द्रिय जीव संख्यात जन्म धारण करता है । (५०) . . . प्रत्येकं विकलेष्वेवं पंचभूकायिकादयः । प्रत्येक मुत्पद्यमानाः संख्येय भवपूरकाः ॥५१॥.. पृथ्वीकाय आदि पांचों का प्रत्येक जीव भी विकलेन्द्रिय के अन्दर उत्पन्न होकर संख्यात जन्म धारण करता है । (५१) विकलाक्षेषु संख्येयान् सर्वेऽपि विकलेन्द्रिया । भवान् विदध्युः प्रत्येकं जायमानाः परस्परम् ॥५२॥ सर्व विकलेन्द्रिय जीव भी विकलेन्द्रिय भी प्रत्येक जाति में परस्पर उत्पन्न होकर संख्यात जन्म धारण करता है । (५२) पूर्वोक्तायुश्चतुभंग्या ज्येष्ठायुरूपलक्षिते । भंग त्रये भवानष्टौ कुर्युः सर्वे क्षमादयः ॥५३॥ पूर्वोक्त आयु की चतुर्भंगी के अन्दर उत्कृष्ट आयुष्यं वाला तीन विभाग में पृथ्वीकाय आदि जीव आठ जन्म धारण करता है । (५३) तथाहि-पृथ्वी कायिक उत्कृष्टायुष्क उत्कृष्ट जीविषु। अप्कायिकेषूत्कर्षेणोद्भवेद्वार चतुष्टयम् ॥५४॥ वह इस तरह-उत्कृष्ट आयुष्य वाला पृथ्वीकाय उत्कृष्ट आयुष्य वाले अप- काय के अन्दर उत्कृष्टतः चार बार उत्पन्न होता है । (५४) एवमेकान्तरं वारानुत्पद्य चतरस्ततः । अवश्यमन्य पर्यायं लभते नवमे भवे॥५५॥ इसी तरह एकान्तर में चार बार उत्पन्न होकर वहां से नौंवें जन्म में अवश्य अन्य पर्याय प्राप्त करता है । (५५)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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