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________________ (४६८) पयोधयस्त्रयस्त्रिंशदुत्कर्षेण भवस्थितिः । सहस्राणि दशाब्दानां स्यादेषां सा जघन्यतः ॥७४॥ इति भवस्थितिः ॥७॥ कायस्थितिस्त्वेषां भवस्थितिरेव ॥८॥ इनकी भवस्थिति उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम की है और जघन्यतः दस हजार वर्ष की है। (७४) यह भवस्थिति द्वार है । (७) इनकी भवस्थिति और कायस्थिति एक ही समान है । (८) देहास्त्रयस्तैजसं कार्मणं वैकि यं तथा । । संस्थान चतुरस्त्रं स्याद्रम्यं पुण्यानुसारतः ॥७५॥ इति द्वार द्वयम ॥६-१०॥ इनका देह तीन प्रकार का होता है - १-- तैजस, २- कार्मण और ३- वैक्रिय । तथा इनके पुण्य के योग से इनको सुन्दर रम्य सम चौरस संस्थान होता है। (७५) ये देह तथा संस्थान द्वार हैं। (६-१०) . उत्कर्षतः सप्तहस्ताः वपुर्जघन्यतः पुनः । अंगुलासंख्यभागः स्यादादौ स्वाभाविकं हृदः ॥६॥ तत्कृत्रिमं वैक्रियं साधिकै कलक्षयोजनम् । ज्येष्ठमंगुल संख्यांश मानमादौ च तल्लघु ॥७७॥ इति अंगमानम् ॥११॥ अब इनके देहमान के विषय में कहते हैं- देव का स्वाभाविक शरीर उत्कृष्ट सात हांथ का होता है और जघन्य एक अंगुल के असंख्यातवें भाग के समान होता है जो उनका आरम्भ का शरीर है तथा उनका कृत्रिम वैक्रिय शरीर उत्कृष्ट एक लाख योजन से सहज अधिक होता है और जघन्यतः एक अंगुल के संख्यातवें भाग सदृश होता है जोकि प्रारम्भ का ही है। (७६-७७) : यह अंगमान द्वार है। (११) ।
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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