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________________ (४७८) - और ये यदि कभी वैमानिक में से आएं तो वासुदेव के समान अनुत्तर विमान के देवों को छोड़कर अन्य देवों में से आते हैं। (८६) मुहूर्ता द्वादशोत्कृष्टं समयो लघु चान्तरम् । तिर्यग्वदेक समय संख्या संमूर्छिमः सह ॥६०॥ इनका उत्कृष्ट अन्तर बारह अन्तर्मुहूर्त का है और जघन्य अन्तर एक समय का है। तथा इनकी एक समय संख्या और संमूर्छिम की एक समय संख्या एकत्र मिलकर तिर्यंच के जितनी होती है। (६०) उक्तं च....... नानांगि नाम पर्याप्त नृव्वे नोत्पत्तिरीरिता । ... उत्कर्षताऽविच्छे देन पल्यासंख्यलवावधि ॥१॥ अपर्याप्त नरत्वेनोत्पत्तिरे कस्य चांगिनः । .. उत्कर्षतो जघन्याच्चान्तर्मुहूर्त निरन्तरम् ॥६२॥ . इत्यर्थतः पंच संग्रहो ॥ इति आगतिः ॥१४॥ इसके सम्बन्ध में पंच संग्रह में इस तरह भावार्थ कहा है- अपर्याप्त मनुष्यत्व के कारण नाना प्रकार के प्राणियों की सतत उत्कृष्ट उत्पत्ति पल्योपम के असंख्यवें भाग तक होती है और इसी कारण से एक प्राणी की लगातार उत्पत्ति जघन्य तथा उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्त तक होती है। (६१-६२) यह आगति द्वार है। (१४) सम्यक्त्वं देशविरतिं चारित्रं मुक्तिमप्यमी । लभन्तेऽनन्तर भवे लब्ध्वा नर भवादिकम् ॥६३॥ अनन्तेऽनन्तरभवे लभन्ते कदाचन । अर्ह त्वं चक्र वर्तित्वं बलत्वं वासुदेवतां ॥४॥ अब इनकी अनन्तर राप्ति के विषय में कहते हैं- यह गर्भज मनुष्य अनन्तर जन्म में मनुष्यत्व आदि प्राप्त कर सम्यकत्व देश, विरति, चारित्र और मोक्ष प्राप्त करता है, परन्तु कभी भी अर्हत्, चक्रर्ती, बलदेव अथवा वासुदेव का अनन्तर जन्म नहीं होता है। (६३-६४) लब्धिष्वष्टाविंशतौ या येषामिह नृजन्मनि । संभवन्ति प्रसंगेन दर्श्यन्ते ता यथागमम् ॥६५॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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