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________________ (४७२) देवलोक तक जाते हैं क्योंकि ईशान देवलोक में जघन्य स्थिति भी पल्योपम से अधिक होती है। (५७ से ५६) सर्व संसारि गतिषु नराः संख्येय जीविनः । गच्छन्ति कर्म विगमादेति मुक्ति गतावपि ॥६०॥ संख्यात आयुष्य वाले मनुष्य सर्व संसारी गति में जाते हैं और कर्म रहित . बने मोक्ष में भी जाते हैं। (६०) ___ तत्र च.... तीव्र रोषास्तपोमत्तास्तथा बालतपस्विनः । . . . द्वैपायनादिवरिपरा यान्त्य सुरेष्वमी ॥६१॥ परन्तु इनमें यदि तीव्र रोष वाला हो और तपस्या के कारण उन्मत्त तथा ' बाल तपस्वी हो वह द्वैपायन ऋषि के समान वैर रखने से असुरों में भी जन्म लेता है। (६२) जलाग्नि झंपासंपात गलपाश विषाशनैः । तृष् क्षुदाद्यैर्मृतास्ते स्युय॑न्तराः शुभ भावतः ॥६२॥ तथा जल में गिरकर, झंपापात- पहाड़ आदि से गिरकर, अग्नि में पड़कर, गले में फांसी खाकर, विषपान करके अथवा भूख- प्यास के कारण जिसकी मृत्यु हो जाती है और उसका शुभ भाव रहे तो वह व्यन्तर होता है। (६२) अविराद्ध चारित्राणां जघन्यादाद्यताविषः । उत्कर्षेण च सर्वार्थ सिद्धिः स्याद्विषयो गते ॥६३॥ जो चारित्र लेकर विराधना नही करता वह कम से कम देवलोक में जाता है और अधिक से अधिक सर्वार्थसिद्धि में भी जाता है। (६३) . विराद्ध संयमानां तु भवनेशाद्यताविषौ । क्रमाजघन्योत्कर्षाभ्यामेवमग्रेऽपि भाव्यताम् ॥६४॥ परन्तु जो चारित्र लेकर विराधना करता है वह जघन्यतः भवनपति में और . उत्कर्षतः प्रथम देवलोक में जाता है। (६४) आराद्ध देशविरतिः सौधर्माच्युत ताविषौ । , विराद्ध देशविरते: भवन ज्योतिरालयौ ॥६५॥ जो देश विरति धर्म का आराधक होता है वह जघन्यतः सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होता है और उत्कृष्टतः अच्युत देवलोक में जाता है और जो देश विरति
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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