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________________ ( ४६८) इस सम्बन्ध में बहुत कुछ कहने को है, परन्तु विस्तार के भय से कहा नहीं है । इसलिए बुद्धिमान जीवों को प्रज्ञापना सूत्र आदि ग्रन्थों से जान लेना चाहिए | (३६) I यह प्रथम भेद द्वार है। (१) एषां तिर्यग् नरक्षेत्रावधि जन्मात्ययादिकम् । योजनानां दशशतीमधो न परतः पुनः ॥४०॥ इति स्थानम् ॥२॥ अब गर्भज मनुष्य के स्थान के विषय में कहते हैं- इसमें इतना ही है. कि. इनका जन्म मरण केवल तिर्यंच लोक में मनुष्य क्षेत्र तक ही होता है, और अधोलोक में एक सहस्र योजन पर्यन्त होता है। इससे आगे नहीं होता । (४०) यह दूसरा द्वार है । (२) एषां पर्याप्तयः सर्वाः पर्याप्तानां प्रकीर्त्तिताः । यथा सम्भवमन्येषां प्राणाश्च निखिला अपि ॥४१॥ इति पर्याप्तयः ॥ ३ ॥ इसके पर्याप्त विषय कहते हैं- पर्याप्त गर्भज मनुष्यों को सर्व पर्याप्ति कही हैं, अपर्याप्त गर्भज मनुष्यों को जितनी संभव हो उतनी कही हैं तथा प्राण तो इनको सारे होते हैं। (४१) यह पर्याप्त द्वार है । (३) चतुर्दशयोनिलक्षा एषां संमूर्छिमैः सह । द्वादश स्युः कुल कोटयो योनिर्विवृत संवृता ॥४२॥ मिश्रा सचिताचित्तत्वात् शीतोष्णत्वाच्च सा भवेत् । वंशीपत्रा तथा शंखावर्ता कर्मोंन्नतापि च ॥ ४३ ॥ इति द्वारत्रयम् ॥४ से ६॥ संमूर्छिम की और इसकी मिलाकर चौदह लाख योनि संख्या है। जबकि कुल कोटि संख्या बारह लाख है। इसकी योनि विवृत संवृत है तथा यह 'सचित्ताचित' है और शीतोष्ण है अर्थात् दोनों प्रकार से इनकी मिश्र योनि कहलाती है एवं इनकी वंशीपत्रा, शंखवर्ता तथा कूर्मोन्नता ऐसी तीन प्रकार की योनि होती है। (४२-४३)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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