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________________ (४५६) यह अल्प बहुत्व द्वार है । (३३) स्तोकाः पंचाक्षतिर्यंचः प्रतीच्यां स्तुस्ततः क्रमात् । प्राच्यां याम्यामुदीच्यां च विशेषतोऽधिकाधिकाः ॥१६॥ इति दिगपेक्षयाल्प बहुत्व ॥३४॥ अब दिशा की अपेक्षा से इनका अल्प बहुत्व विषय कहते हैं- पंचेन्द्रिय तिर्यंच पश्चिम दिशा में सबसे थोड़े हैं । फिर अनुक्रम से अधिक से अधिक पूर्व, दक्षिण और उत्तर दिशा में होते हैं। (१६४) यह दिशा की अपेक्षा से अल्प बहुत्व है। (३४) तिर्यक पंचेन्द्रियाणां स्यादन्तर्मुहूर्त संमितम् । जघन्यमन्तरं ज्येष्ठं त्वनन्तकाल सम्मितम् ॥१६॥ एतत् वनस्पतेः काय स्थितिं भुक्त्वा गरीयसीम् । पुनः पंचाक्षतिर्यक्त्वं लभमानस्य सम्भवेत् ॥१६॥ इति अन्तरम् ॥३५॥ अब इनके अन्तर के विषय में कहते हैं- पंचेन्द्रिय तिर्यंच का जघन्य अन्तर अन्त- मुहूर्त का होता है, उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल का है। वनस्पति की उत्कृष्ट कायस्थिति भोगकर वापिस प्राणी पंचेन्द्रिय तिर्यंच में आए, उतने समय में उत्कृष्टतः अनन्तकाल तक वहीं रहना संभव होता है। (१६५-१६६) यह अन्तर द्वार है। (३५) . . द्वयक्षादितिर्यक्तनु भृत्स्वरूप मेवं मयोक्तं किल लेश मात्रम् । .. विशेष विस्तार रसार्थिना तु सिद्धान्तवारां निधयोऽवगाह्याः ॥१६७॥ इस तरह हमने द्वीन्द्रिय आदि तिर्यंच प्राणियों का अल्प स्वरूप कहा है। जिसे विशेष विस्तारपूर्वक जानने की इच्छा हो उसे सिद्धान्त रूपी समुद्र का अवगाहन करना चाहिए । (१६७) विश्वाश्चर्य कीर्ति कीर्ति विजय श्रीवाचकेन्द्रान्तिषद्राज श्री तनयोऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः। काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे । सो निर्गलितार्थ सार्थ सुभगः षष्ठः समाप्तः सुखम् ॥१६८॥ इति षष्ठः सर्गः
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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