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________________ (४५७) इति आहारः ॥२६॥ अब इनके आहार के विषय में कहते हैं- पंचेन्द्रिय तिर्यंच एक दो समय अनाहारी रहते हैं, इनको ओजस आहार आदि तीन प्रकार का आहार होता है तथा सचित आहार आदि तीन प्रकार का आहार भी होता है। प्रथम ओज आहार होता है, फिर लोम आहार और उसके बाद कवल आहार होता है । आहार का उत्कृष्ट अन्तर दो दिन का और जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त का होता है। यह जो उत्कृष्ट अन्तर कहा है वह कवलाहार का समझना और वह तीन पल्योपम के आयुष्य वाले तिर्यंच की अपेक्षा से स्वाभाविक होता है। (१८१ से १८३) यह आहार द्वार है । (२६) 1 गुणस्थान द्वयं संमूर्छिमानां विकलाक्षवत् । गर्भजानां पंच तानि प्रथमानि भवन्ति हि ॥ १८४ ॥ इति गुणा ॥३०॥ अब इनके गुण के विषय में कहते हैं - संमूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय को विकलेन्द्रिय के समान दो गुण स्थान होते हैं जबकि गर्भज को प्रथम के पांच गुण स्थान होते हैं। (१८४). यह गुण स्थान द्वार है। (३०) संमूर्छिमानां चत्वारो योगाः स्युर्विकलाक्षवत् । आहारकद्वयं मुक्त्वा गर्भजानां त्रयोदश ॥१८५॥ इति योगाः ॥३१॥ संमूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय को विकलेन्द्रिय के समान चार योग होते हैं जबकि गर्भज को दो आहारक योग के अलावा अन्य तेरह योग होते हैं । (१८५) यह योग द्वार है । (३१) 1 प्रतरासंख्यभागस्थासंख्येय श्रेणिवर्तित्रिः । नयः प्रदेशः प्रमितास्तिर्यंचः खचराः स्मृता ॥ १८६॥ एवमेव स्थलचरास्तथा जलचरा अपि । भवन्ति किन्तु संख्येय गुणाधिकाः क्रमादिमे ॥ १८७॥ यदसौ प्रतरासंख्य भागः प्रागुदितः खलु । यथाक्रमं श्रुते प्रोक्तो बृहत्तर बृहत्तमः ॥१८८॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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