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________________ ( ४५२) सप्तस्वपिक्ष्मासु यान्ति मत्स्याद्या जलचारिणः । रौद्रध्यानार्जित महापाप्मानो हिंसका मिथः ॥ १५७॥ चतुष्पदाश्च सिंहाद्याश्चत सृष्वाद्यभूमिषु । पंच सूरः परिसर्पास्ति सृष्वाद्यासु पक्षिणः ॥ १५८ ॥ भुज प्रसर्पा गच्छन्ति प्रथम द्विक्षमावधि । देवेषु गच्छतामेषां सर्वेषां समता गतौ ॥१५६॥ . रौद्र ध्यान आदि के कारण जिन्होंने महापाप उपार्जन किया हो और परस्पर हिंसा करने वाले मछली आदि जलचर जीव सातों नरक में जाते हैं। सिंह आदि चार पैर वाले प्रथम चार नरक तक जाते हैं । उरपरिसर्प पांच नरक तक, पक्षी तीन नरक तक और भुजपरिसर्प दो नरक तक जाते हैं । देवगति प्राप्त करते समय वहां 'एक समान गति प्राप्त करते हैं । (१५७ से १५६) . भवने व्यन्तरेषु ज्योतिष्केषु च यान्त्यमी । वैमानिकेषु चौत्कर्षादष्ट मत्रिदिवावधि ॥ १६० ॥ वे सभी भवनपति, व्यन्तर और ज्योतिष्क में जाते हैं और वैमानिक में उत्कृष्ट आठवें देवलोक तक जाते हैं । (१६०) सुरेषु यान्ति सर्वेऽपि तिर्यंचोऽसंख्य जीविनः । निजायुः समहीनेषु नाधिक स्थितिषु क्वचित् ॥१६१॥ असंख्यात आयुष्य वाले सभी तिर्यंच अपने आयुष्य जितनी स्थिति वाला अथवा इससे कम स्थिति वाला देवत्व प्राप्त करते हैं। अपने आयुष्य से अधिक स्थिति वाला प्राप्त नहीं होता है । (१६१) असंख्य जीविखचरा अन्तरा द्वीपजा अपि । तिर्यक पंचेन्द्रिया यान्ति भवन व्यन्तरावधि ॥ १६२॥ ततः परं यतो नास्ति पल्यासंख्यांशिका स्थितिः । न चैवमीशानादग्रे यान्ति केऽप्यमितायुषः ॥ १६३॥ इति गतिः ॥१३॥ तथा असंख्य जीव खेचर और अन्तर द्वीप में उत्पन्न हुए तिर्यंच पंचेन्द्रिय भी भवनपति और व्यन्तर तक की गति में जाते हैं क्योंकि इससे आगे तो पल्योपम के
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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