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________________ (४३६) सेवार-काई में बहुत होते हैं और भौरे आदि कमल पुष्प में बहुत होते हैं। (५८ से ६०) यह दिगपक्षेया अल्प बहुत्व द्वार है। (३४) अल्पमन्तर्मुहूर्तं स्यात् कालोऽनन्तोऽन्तरं महत् । . वनस्पत्यादिषु स्थित्वा पुनर्विकलताजुषाम् ॥१॥ इति अन्तरम् ॥३५॥ . इनके अन्तर के विषय में कहते हैं- जो जीव वनस्पति आदि में रहकर पुनः विकलेन्द्रिय रूप प्राप्त करता है उन दोनों की स्थिति के बीच का अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टतः अनन्तकाल प्रमाण है। (६१) यह अन्तर द्वार कहा है। (३५) इस तरह इकसठ श्लोकों के द्वारा विकलेन्द्रिय जीवों का स्वरूप समझाया गया है। अब पंचेन्द्रिय जीवों का स्वरूप कहते हैं तिर्यंचो मनुजा देवा नारकाश्चेति तात्विकैः। स्मृता पंचेन्द्रिया जीवाश्चतुर्धा गणधारिभिः ॥६२॥ . तत्त्व के जानकार श्री गणधर भगवन्त ने पंचेन्द्रिय जीवों के चार भेद कहे हैं१. तिर्यंच, २. मनुष्य, ३. देव और ४. नारकी। (६२) त्रिधा पंचाक्ष तिर्यंचो जल स्थल ख चारिणः । अनेकधा भवन्त्येते प्रति भेद विवक्षया ॥६३॥ पंचेन्द्रिय तिर्यंच के तीन भेद होते हैं- जलचर, स्थलचर और खेचर; तथा इसके भी उपभेद हैं, यह देखते अनेक भेद कहलाते हैं। (६३) दृष्टा जलचरास्तत्र पंचधा तीर्थपार्थिवैः । मत्स्याश्च कच्छपा ग्राहा मकरा शिशुमारकाः ॥६४॥ जलचर जीव के पांच भेद हैं- मत्स्य, कछुआ, ग्राह, मकर और शिशुमार। (६४) तत्रानेक विधा मत्स्याश्लक्ष्णास्तिमितिमिंगलाः । नक्रास्तंडुल मत्स्याश्च रोहिताः कणिकाभिघाः ॥६५॥ पीठ पाठीनशकुलाः सहस्रदंष्ट्र संज्ञकाः । नलमीना उलूपी च प्रोष्टी च मद्गुरा अपि ॥६६॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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