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________________ (४१४) इत्यागतिः ॥१४॥ तथा इन बादर में एक समय में होने वाले जन्म मरण की संख्या सूक्ष्म के अनुसार ही समझना क्योंकि यहां भी सूक्ष्म की तरह विरह नहीं है। (३०६) यह आगति का वर्णन है। (१४) विपद्यानन्तर भवे तिर्यक्पंचाक्ष्यतां गताः । सम्यक्त्वं देश विरतिं लभन्ते भूदकद्रुमाः ॥३०७॥ विपद्यानन्तर भवे प्राप्य गर्भजमर्त्यताम् । . .... सम्यक्त्वं विरतिं मोक्षमप्याप्नुवन्ति केचन ॥३०८॥. अब अनन्तरा के विषय में कहते हैं- पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय के जीव मृत्यु के बाद अनन्तर भव में तिर्यंच पंचेन्द्रिय रूप प्राप्त करके देश विरति सम्यकत्व प्राप्त करता है और कोई मृत्यु के बाद अनन्तर जन्म में गर्भज. मनुष्य रूप प्राप्तकर समकित सर्व विरति और मोक्ष भी प्राप्त करता है। (३०७-३०८) विपद्यानन्तर भवे न लभन्तेऽग्निवायवः । सम्यक्त्वमपि दुष्कर्मतिमिरावृत लोचनाः॥३०६॥ इत्यनन्तर राप्तिः ॥१५॥ दुष्कर्म रूपी तिमिर से आवृत बने हैं लोचन जिनके- ऐसे अग्निकाय और वायुकाय के जीव मृत्यु के बाद अनन्तर जन्म में समकित्त नहीं प्राप्त करते है। (३०६) यह अनन्तरा कहा है। (१५) पृथ्व्यम्बुकायिका मुक्तिं यान्त्यनन्तर जन्मनि । चत्वार एक समये षड् वनस्पतिकायिकाः ॥३१०॥ इति समये सिद्धिः ॥६॥ पृथ्वीकाय और अप्काय के जीव अनन्तर जन्म में एक समय के अन्दर चार की संख्या में मोक्ष जाते हैं। वनस्पतिकाय जीव एक समय में छः मोक्ष जाते हैं। (३१०) यह समय सिद्धि का वर्णन है। (१६)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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