SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३६४ ) उक्तं च प्रज्ञापना वृत्तौ पणयाललख्ख पिहुला दुन्नि कवाडा य छ दिसिं पुट्ठा । लोगंते तेसिं तो जे तेउ तेऊ घिप्पन्ति ॥ २०६ ॥ इस विषय में प्रज्ञापना सूत्र की वृत्ति में इस तरह कहा है कि- पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाले दो कपाट की छ: दिशा में लोकांत तक कल्पना करना; उसके अन्दर जो अनिकाय जीव रहते हैं वह यहां ग्रहण करना या समझना। ( (२०६) तत उक्तम्-‘“उववाएणं दोसु कवाडे सु तिरियलोअ तट्टे या ". और इससे ही आगम में कहा है- 'दो कपाटों के अन्दर तथा तिर्यग् लोक के तट पर उपघात रहता हैं । ' . पृथ्व्यादिषु चतुर्ष्व कपर्याप्त निश्रया मताः ! असंख्येया अपर्याप्ता जीवा वनस्पतेः पुनः || २१०॥ पर्याप्तस्य चैकैकस्य पर्याप्ता निश्रेया स्मृताः । असंख्येयाश्च संख्येया अनन्ता अपि कुत्रचित् ॥२११॥ युग्मं । पृथ्वी आदि चार में अर्थात् पृथ्वीकाय, अंकाय, तेऊकाय और वायुकाय में एक पर्याप्त की निश्रायें में असंख्य अपर्याप्त होते हैं और वनस्पतिकाय में एक पर्याप्त की निश्रा में १- असंख्य, २- संख्यात् और ३- अनन्त - इस तरह से तीन प्रकार के अपर्याप्त होते हैं । (२१०-२११) तत्र च संख्यासंख्यास्तु पर्याप्त प्रत्येक तरुनिश्रया । अनन्ता एव पर्याप्त साधारण वनाश्रिताः ॥ २१२ ॥ इति बादराणां स्थानानि ॥ २ ॥ . और इसमें भी एक पर्याप्त प्रत्येक वनस्पति की निश्रा में अपर्याप्त संख्यात और असंख्यात जितने होते हैं जबकि एक पर्याप्त साधारण वनस्पतिकाय की निश्रा में वे अनन्त होते हैं। (२१२) ....... इस तरह बादर के स्थानों के विषय में विवेचन सम्पूर्ण हुआ । (२) पर्याप्तयस्त्रिचतुरा अपर्याप्तान्य भेदतः । प्राणश्चत्वारोऽङ्गबल श्वासायूंषि त्वगिन्द्रियम् ॥२१३॥ इति पर्याप्तिः ॥३॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy