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________________ ( ३४६ ) उद्वर्त्तनोपपातावित्येयं स्यातां प्रति क्षणम् । यथैकस्य निगोदस्यासंख्य भागस्य सर्वदा ॥ ११३ ॥ तथैवान्य निगोदानामपि त्रैलोक्यवर्त्तिनाम् । उद्वर्त्तनोपपातौ स्तौऽसंख्यांशस्य पृथक् पृथक् ॥११४॥ और इसी तरह हमेशा प्रत्येक क्षण (समय) में निगोद के एक असंख्यवें भाग का विनाश और उत्पत्ति होती है। इसी तरह तीन लोक में रहने वाले अन्य निगोदों के असख्यवें अंश का अलग-अलग उत्पत्ति और विनाश हुआ करता है । (११३-११४) उद्वर्त्तनोपपाताभ्यां भवद्भ्यामित्यनुक्षणम् । परावर्त्तन्ते निगोदा अन्तर्मुहुर्त मात्रतः ॥११५॥ इसी तरह प्रत्येक क्षण में उत्पत्ति और विनाश होते रहने से अन्तर्मुहूर्त में निगोद परवर्तन होता है । (११५) जायमानै म्रियमाणैरन्तर्मुहूर्त जीविभिः । निगोदिभिर्नवनवैः स्युः शून्यास्तु मनाक् न ते ॥ ११६॥ इस प्रकार केवल अन्तर्मुहूर्त्त तक जीने वाले नये नये निगोद के जीव उत्पन्न होते हैं और मृत्यु प्राप्त करते हैं फिर भी वह निगोद अल्पमात्र भी कम नहीं होते हैं। (११६) तथोक्तं- एगो असंखभागों वट्टइ उवट्टणोववायं मि । एगनिगोए निच्चं एवं सेसेसु विसएवम् ॥११७॥ अंतो मुहूत्तमित्ता ठिइ निगोआण जं विनिद्दिट्ठा । पल्लट्टंति निगोआ तम्हा अंतो मुहूत्तेणं ॥ ११८ ॥ इस सम्बन्ध में अन्यत्र कहा है कि- एक निगोद का एक असंख्यवां भाग हमेशा के समान विनष्ट और उत्पन्न हुआ करता है, वैसे ही अन्य निगोदों में भी समझना। निगोद का स्थितिकाल अन्तर्मुहूर्त्त है और वह निगोद अन्तर्मुहूर्त्त में बदल जाता है। (११७-११८) एषामुत्पत्ति मरणे विरहस्तु न विद्यते । यज्जायन्ते म्रियन्ते चासंख्यानान्ता निरन्तरम् ॥११६ ॥ इति आगति ॥१४॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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